बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२
हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है
जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है
जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा
ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है
जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है
वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं
जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, बहुत ही शानदार बह्र में ग़ज़ल कही है आपने. ये बह्र मुझे बहुत पसंद है. ग़ज़ल के अशआर बहुत बढ़िया हुए है. इस ग़ज़ल में एक शेर के शब्द किताब-ए-गंदगी में गंदगी शब्द शेर के सौन्दर्य को कमजोर कर रहा है. (यकीनन आपके पास शब्दों की कमी नहीं है.) ये शब्द चयन गद्य विधा हेतु ठीक है लेकिन ग़ज़ल ?.... ऐसा ही कुछ ग़ालिब चचा भी कह गए है- //हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन. दिल के बहलाने को गा़लिब ये ख़याल अच्छा है.//
ग़ज़ल में ऐसी कहन के लिए प्रतीकात्मक या कलात्मक होना ज्यादा अच्छा होता है. मेरे हिसाब से. इस बात को मुझे इस तरह कहना अच्छा लगता -
जो किताब कह रही हो वो किताब मतलबी है.......... मतलबी शब्द पर पुनः आपका ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ. क्योकि कई गंदगी का मूल मतलब या स्वार्थ ही रहा है.
संभवतः मैं अपनी बात स्पष्ट कर सका हूँ.
बाकी अशआर मस्त ... जिस लहजे की ग़ज़ल है उसमें ऐसी कहन का होना स्वाभाविक है. बधाई इस ग़ज़ल पर
आदरणीय गोपाल नारायन जी, ग़ज़ल का हर शे’र मुक्त होता है। मत्ले में जिस ख़ुदा के अस्तित्व को नकारा गया है वो ख़ुदा वह है जिसने सृष्टि का निर्माण किया है। मैंने ऐसे किसी ख़ुदा के अस्तित्व से इनकार किया है क्योंकि सृष्टि अपने आप बनती मिटती है इसमें किसी ख़ुदा का कोई रोल नहीं होता।
तीसरे शे’र में जिस ख़ुदा से लड़ने की बात हो रही है वो वह विचार / कल्पना है जो कुछ धर्मों में चंद विशेष जातियों ने दूसरी जातियों का शोषण करने के लिए रचा है और इस शोषण के पाप से मुक्त होने के लिए उस ख़ुदा को अपनी पाप की कमाई से हिस्सा देने का भी प्रावधान रखा है।
आदरणीय मनोज कुमार जी, मैं किसी की मान्यताओं और आस्था से खिलवाड़ नहीं कर रहा हूँ। चार्वाक को हमारे देश में ऋषि कहा जाता है और उनके विचारों को लोकायत दर्शन कहा जाता है। मैंने कोई नई बात नहीं की है सिर्फ़ पुरानी बातों को ही नए तरीके से कहा है। इससे आपकी भावनाएँ आहत हो रही हैं तो इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता। अधिक जानकारी के लिए यह लिंक देखें।
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%...
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि शुक्ला जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी
अ० धर्मेन्द्र जी , आप के तेवर बगावती है और आपने खुदा के वजूद को नकारा है . यह सोच नयी नहीं है पहले भी नास्तिकता बहुत चर्चा में रही है पर आपकी यह पंक्ति विरोधभास प्रकट करती है --ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है एक और आप खुदा के वजूद को नकारते हैं दूसरी और आपकी कलम खुदा से लड़ने का दावा करती है . सादर .
आदरणीय धर्मेन्द्र जी ग़ज़ल के प्रयास के लिये बधाई स्वीकार करके शिल्प बहुत सुन्दर है और कथ्य बहुत कुछ सोचने को विवश कर रहा है । देखते है और साथी इस पर क्या विचार लेकर आते है । सादर
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई। |
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