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जरा सा पास आकर देख तो लो----(ग़ज़ल)---मिथिलेश वामनकर

1222---1222---122

 

जरा सा पास आकर देख तो लो

कभी पलकें उठाकर देख तो लो

 

अगरचे तिश्नकामी गम बहुत है

उसे आँसू पिलाकर देख तो लो

 

चलो माना कि नाटक ख़त्म लेकिन

जरा परदा उठाकर देख तो लो

 

बहुत तीखी है उनकी बात लेकिन

उसे दिल से लगाकर देख तो लो

 

ख़ुदा का तब्सिरा करने से पहले

नया परबत बनाकर देख तो लो

 

दिवारें रात भर सुनती रहेंगी 

कोई किस्सा सुनाकर देख तो लो

 

वहीँ नीचे, ख़ुशी भी मुन्तजिर है

ढकी दौलत हटाकर देख तो लो

 

ये माना जिंदगी है कामयाबी

जरा रेटिंग घटाकर देख तो लो

 

यकीं मानो मेरे सिर पर कफ़न है 

मेरी गर्दन झुकाकर देख तो लो

 

मुहब्बत की फिरौती दिल करेगा

इसे बंधक बनाकर देख तो लो

 

कभी करना मेरी तनकीद लेकिन 

मेरी गज़लें उठाकर देख तो लो

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2015 at 4:06am

आदरणीय शिज्जू भाई जी, आपका स्नेह और मार्गदर्शन पाकर सदैव प्रेरित होता हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. 


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Comment by शिज्जु "शकूर" on October 21, 2015 at 7:48pm
आदरणीय मिथिलेशजी ग़ज़ल पर आपके नित नये प्रयोग प्रभावित करते हैं पहले तो आप इस ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें। रेटिंग शब्द के प्रयोग में ग़लत कुछ नहीं है लेकिन यहाँ लय बाधित हो रही है
Comment by amod shrivastav (bindouri) on October 21, 2015 at 4:43pm
Ji sar agr रेटिंग शब्द पर गुणी जान की सहलह मिली तो हमें भी मार्गदर्शन होगा
सादर आभार

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Comment by मिथिलेश वामनकर on October 21, 2015 at 4:43pm

आदरणीय कृष्ण भाई जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on October 21, 2015 at 4:24pm
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुयी है आ0 मिथिलेश सर।हार्दिक बधाई..आ0 गिरिराज सर की सलाह मुझे भी जंच रही है।
सादर।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on October 21, 2015 at 2:44pm

आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपने बहुत ही अच्छी सलाह दी है. आज सुबह ही मेरे में भी ख़याल आया कि ग़ज़ल विधा में 'देख तो लो' का लहजा कथ्य के सौन्दर्य को प्रभावित कर रहा है. लहजे की नफासत भी ग़ज़ल की एक विशेषता है. मार्गदर्शन हेतु आभार.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on October 21, 2015 at 2:18pm

आदरणीया प्रतिभा जी, ग़ज़ल पर आपकी आत्मीय टीप पाकर मुग्ध हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on October 21, 2015 at 2:17pm

आदरणीय आमोद जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 'रेटिंग' शब्द का प्रयोग जानबूझकर किया है ताकि कथ्य का मर्म उभरकर सामने आये, जहाँ तक 'औसत' शब्द का प्रयोग है, उससे कथ्य ही बदल जायेगा. ग़ज़ल में बोलचाल में घुस आये अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग होता रहा है. इस विषय पर गुनीजनों की राय की भी प्रतीक्षा कर रहा हूँ .. सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on October 21, 2015 at 12:50pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , लागवाब गज़ल कही है , सभी अशआर बहुत खूब हुये हैं , दिली मुबारक बाद कुबूल कीजिये ॥

एक सलाह अकारण --- रदीफ को अगर, देखिये तो करें तो कैसा रहेगा -- जैसे

जरा सा पास आकर देखिये तो

कभी पलकें उठाकर देखिये तो  -- कोई ज़रूरी नहीं है , बस यूँ खयाल आया तो कह दिया ॥

Comment by pratibha pande on October 20, 2015 at 1:18pm

भक्ति और शक्ति पर्व के उपवासों के दौरान एक; 'फलहारी 'सी लगती रूमानी ग़ज़ल ,बधाई आपको आदरणीय अखिलेश जी 

कृपया ध्यान दे...

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