2122-- 1122 --1122 –112 |
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बंदगी जिनका सफीना था, वही पार गए |
नाखुदाओं पे भरोसा जो किया, हार गए |
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अम्न के वास्ते इस पार से उस पार गए |
भीड़ में शोर कि इस बार भी गद्दार गए |
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आखिरी आस भी रौशन-जहाँ की जाती रही |
जब उजालों की हिफाज़त को ही अंधियार गए |
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तब हर इक घर में सदाकत का जनाजा उतरा |
झूठ से लिपटे हुए सुबह जो अखबार गए |
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इस हुकूमत से कहो- ‘जुल्म का है हश्र यही, |
सारे सुलतान गए साथ में दरबार गए’ |
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जो हवा में बने थे, अहले-वतन देख लिया |
वो तरक्की के सभी प्लान भी बेकार गए |
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आज वेतन जो मिला कांपते हाथों ने कहा- |
जेब की जद से मियाँ आज के बाज़ार गए |
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इस सियासत में उठी जब भी नई हलचल तो |
दलबदल सिर्फ हुआ और तरफदार गए |
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हकपरस्ती को चला सत्य जो ताने सीना |
नेक दिल लोग मिले, सत्य को दुत्कार गए |
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एक दर्शन की तमन्ना है अधूरी अब तक |
सिर्फ काशी नहीं काबा भी कई बार गए |
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यूं तो हिंसा के विरोधी है, भरोसा कर लो |
हम तो बस जोश में ही आपको ललकार गए |
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Comment
आदरणीय जयनित जी जो अल्फ़ाज़ आपको नहीं समझ आ रहे मंच पर बेहिचक रखिये सभी मित्र अपनी समझ के अनुसार उसे साझा कर लेंगे जिससे आप ग़ज़ल का पूरा लुत्फ़ ले सकेगें ।
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए …………….. |
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