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कभी अपने फ़लक़ से तुम ज़रा नीचे उतरकर- शिज्जु शकूर

1222 1222 1222 122
कभी अपने फ़लक़ से तुम ज़रा नीचे उतरकर
चले आओ हक़ीक़त की ज़मीनों से गुज़रकर

ग़लत के मुख़्तलिफ़ चलना! अनोखी बात है क्या?
मुझे क्यों ऐ खुदा सब देखते हैं? यों ठहरकर!

अज़ाबो-कर्ब के मारों की नाउम्मीद आँखें
छलकती जा रही थीं एक के बाद एक भरकर

मेरे हाथ आई थी़ं कुछ कतरनें यादों की कल रात
गुज़रते वक्त ने जैसे रखा हो यूँ कुतरकर

नुमायाँ हो रही है मेरी हालत क्या सरेआम?
बताओ क्यों शफ़क़ का रंग दिखता है उभरकर

हयात अपनी कई टुकड़ों में की तक़्सीम मैंने
मुझे ढूँढोगे? रह जाओगे तुम खुद भी बिखरकर

मौलिक व अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 4, 2015 at 6:13pm
विलम्ब के लिये माफ़ी चाहता हूँ आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 26, 2015 at 10:55am

ग़लत के मुख़्तलिफ़ चलना! अनोखी बात है क्या?
मुझे क्यों ऐ खुदा सब देखते हैं? यों ठहरकर!---बहुत  सुन्दर 

मेरे हाथ आई थी़ं कुछ कतरनें यादों की कल रात
गुज़रते वक्त ने जैसे रखा हो यूँ कुतरकर---शानदार 

इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई लीजिये शिज्जू भैया 

Comment by Shyam Narain Verma on October 23, 2015 at 5:33pm

"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को "

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 22, 2015 at 11:44pm

आदरणीय शिज्जू भाई जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं.

आखिरी शेर कमाल हुआ है.

Comment by Sushil Sarna on October 22, 2015 at 3:29pm

वाह आदरणीय शिज्जु शकूर साहिब ज़हन में उभरते अहसासों का बहुत ही खूबसूरत चित्रण हुआ है खासकर ये अशआर तो दिल में उत्तर गए :

मेरे हाथ आई थी़ं कुछ कतरनें यादों की कल रात
गुज़रते वक्त ने जैसे रखा हो यूँ कुतरकर


हयात अपनी कई टुकड़ों में की तक़्सीम मैंने
मुझे ढूँढोगे? रह जाओगे तुम खुद भी बिखरकर … शे'र दर शे'र दिल से दाद कबूल फरमाएं सर।

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