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प्रणय को आकार दिया ....

दृग
शृंगार करते रहे
आंसुओं से
तृषित मन
आस की मरीचिका में
भटकता रहा
व्यथा
दूर तक फ़ैली नदी में
वायु वेग को सहती
बिन पाल की नाव सी
किसी किनारे की तलाश में
व्यथित रही
दृष्टि स्पर्श
प्रणय अस्तित्व को
नागपाश सा
स्वयंम में लपेटे रहा
अंतर्कथा के मौन पृष्ठों में
जीवन के इक मोड़ की त्रासदी
स्मृति सीप में
कराहती रही
कदम

धूप की तपन को
मन के अंतर्नाद में डूबे 
एक क्षितिज की तलाश में
बढ़ते रहे ,बढ़ते रहे
अंततः
व्योम को अंगीकार किया
शून्य को स्वीकार किया
शिला खण्डों में
प्रणय की प्रतिध्वनि
कैसे जीवित रहती है
बदन के रोओं ने
इस सत्य को साकार किया

अंतःकरण की गहन कंदराओं के मौन ने
प्रणय को आकार दिया

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by kanta roy on October 21, 2015 at 11:05pm

आस की मरीचिका में
भटकता रहा
व्यथा ---- अद्भुत संवेदनाओं को आपने उकेरा है शब्द-शब्द प्राण हो उठे है। कई बार पढ़ती हूँ मैं इसे।

बिन पाल की नाव सी
किसी किनारे की तलाश में
व्यथित रही
दृष्टि स्पर्श-----आह ,कितनी गहनता है यहां !


अंतर्कथा के मौन पृष्ठों में
जीवन के इक मोड़ की त्रासदी
स्मृति सीप में
कराहती रही------व्यथा की ये अतिरेककता ,पढ़ते ही ह्रदय कराह उठा है।

इस सत्य को साकार किया
अंतःकरण की गहन कंदराओं के मौन ने
प्रणय को आकार दिया----- ऐसा लगा जैसे इस इस मौन के अंतर्नाद का स्वर मेरे कानो में गूंज उठा हो। वाह !!!! अद्भुत रचना हुई है आपकी ये आदरणीय सुशील सरना जी। इस रचना के लिए शत शत नमन आप को।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 21, 2015 at 8:07pm
वाह आदरणीय सुशील सरना सर बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति है सादर बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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