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ऐ सुखनवर साथ चल -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

2122---2122---2122---212

 

दौर बदला है, बदल जा,   ऐ सुखनवर साथ चल 

सोचता है जिस जबां में, उस जबां में लिख ग़ज़ल

 

जिंदगी बदलाव है...... गर थम गए तो है कज़ा

आज ही किस्मत बदल जाए जरा खुद को बदल

 

जब भरोसा होगा अपनी जात पर खुद आपको

हौज़-ए-दिल में तब खिलेंगे कामयाबी के कँवल

 

खौफजद को मारती है बारहा ये मौत पर

जंगजू की जिंदगी में इक दफा देती दखल

 

खौफ़ ने जब से शराफत को निकम्मा कर दिया

कह दिया हमने सदाकत से कि तू खुद ही संभल

 

खुद सुखन पैदा करेगी अपना इल्मे-फ़लसफ़ा

तज्रिबा अपना सुना बस, छोड़ औरों की नक़ल

 

कब जुरूरत दोस्तों को, दुश्मनों को कब यकीं?

फिर सफाई दे रहे हो किसलिए यूं आजकल?

 

इल्मे-दुनिया से हुए नापाक, हैरां, बदगुमां

इस मुक़द्दस इल्म से पाया लताफ़त का फज़ल

 

तब नसीहत का पिटारा बाअदब लौटा दिया

जब मसाफ़े-जीस्त में नासेह देखे नाअहल

 

आज फिर अहले-जहां का जश्ने-मातम हो गया

ये सदा आलम में छायी- हो रहम दस्ते-अजल

 

------------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
------------------------------------------------------------

 

लताफ़त- नम्रता,  मुक़द्दस-आध्यात्मिक, मसाफ़े-जीस्त- जीवनयुद्ध, नाअहल-अक्षम/ क्षमताहीन

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2015 at 10:22pm

आदरणीय जयनित जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार बहुत बहुत धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2015 at 10:21pm

आदरणीय सौरभ सर, आपकी दाद पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. विलम्ब से प्रतिक्रिया के लिए क्षमा चाहता हूँ. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार बहुत बहुत धन्यवाद नमन 

Comment by जयनित कुमार मेहता on November 30, 2015 at 9:52am

वाह! आ. मिथिलेश भाई,पहली बार ऐसी ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ..

दिल से बधाई आपको।।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 17, 2015 at 11:04pm

आदरणीय मिथिलेश भाई,  ग़ज़ल अपनी बात कहती चल रही है. शेर अच्छे निकाले हैआपने.  इनशेरों की तो बात ही ज़ुदा है - 

खुद सुखन पैदा करेगी अपना इल्मे-फ़लसफ़ा

तज्रिबा अपना सुना बस, छोड़ औरों की नक़ल

 

कब जुरूरत दोस्तों को, दुश्मनों को कब यकीं?

फिर सफाई दे रहे हो किसलिए यूं आजकल?

 

दिल से दाद दे रहा हूँ. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 12, 2015 at 10:01pm

आदरणीय विजय निकोर सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार बहुत बहुत धन्यवाद नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 12, 2015 at 10:01pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार

Comment by vijay nikore on November 12, 2015 at 3:44pm

//

इल्मे-दुनिया से हुए नापाक, हैरां, बदगुमां

इस मुक़द्दस इल्म से पाया लताफ़त का फज़ल//

सारी गज़ल अच्छी लगी।

शानदार गज़ल के भाव मन को छू गए। हार्दिक बधाई।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 12, 2015 at 10:30am
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय मिथिलेश जी, दाद कुबूल कीजिए

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 10:12pm

आदरणीय मंसूरी जीग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

Comment by Abid ali mansoori on November 3, 2015 at 8:44pm

आज फिर अहले-जहां का जश्ने-मातम हो गया

ये सदा आलम में छायी- हो रहम दस्ते-अजल

बहुत खूब आदरनीय मिथिलेश जी!

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