1222—1222—1222—1222 |
|
नज़र अपनी सितारों पर टिकाने से जरा पहले |
जमीं पर तुम जमा लेना सलीके से कदम अपने |
|
फलक को चाँद भी रौशन करे खुद के उजालों से |
मगर वो दाग रखता है हमेशा पास में अपने |
|
अगर लफ्जों की ज्यादा पत्तियां बिखरी हुई होगी |
तो मतलब के समर हमको दिखाई दे नहीं सकते |
|
मुहब्बत के लिए भटका किये जब दर-ब-दर यारो |
तो सीधे रास्ते पे ला के छोड़ा है मुहब्बत ने |
|
अगर भ्रम है हमेशा भीड़ केवल सत्य कहती है |
यकीनन आप दुनिया को जरा सा भी नहीं समझे |
|
भरोसा वो परिन्दा है लिए जो आस गाता है |
अंधेरों में उजालों की, सहर से भी बहुत पहले |
|
अकेले रोज़ रहकर इस अकेलेपन को जीता है |
फतह इससे बड़ी कुछ और हो तो आप ही कहिये |
|
सुना है फिर मनुज अवतार में भगवान् आए हैं |
सभी से रोज मिलते हैं इसी उम्मीद में हँस के |
|
हमे आज़ाद होने की हमेशा लालसा लेकिन |
न जाने क्यों स्वयं के बन्धनों से हम रहे चिपके |
|
खुदा ने भूल जाने की अजब दौलत तो बख्शी हैं |
मगर फिर भी सभी बस याद करने में लगे रहते |
|
------------------------------------------------------------ |
Comment
आदरणीया राजेश दीदी, मात्रिक काफिया के साथ गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल का पहला प्रयास है दीदी. इन दिनों कुछ अलग के अभ्यास के क्रम में यह ग़ज़ल हुई है. यह अवश्य है कि तुकांतता के प्रति मेरा मोह और रदीफ़ से आने वाला सौन्दर्य का उपासक होना मुझे ऐसे प्रयोगों के लिए अधिक प्रेरित नहीं करता मगर इस विशिष्ट विधा के इन आयामों पर भी अभ्यास आवश्यक है बस यही मानकर यह ग़ज़ल कही है. आपने बिलकुल सही कहा तुकांत-प्रेमी के लिए ये साहसिक कदम ही है, बड़ी हिम्मत लगी है इसे पोस्ट करने में. आपको ग़ज़ल पसंद आई ये जानकार आश्वस्त हुआ हूँ. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल वो भी मात्रिक काफिया के साथ!!! शायद आपकी पहली बार पढ़ रही हूँ बड़ी ख़ूबसूरती से मकते तक निभा ले गए मिथिलेश भैया इस साहसिक कदम की सराहना करते हुए शेर दर शेर दाद कुबूलें सभी अशआर बेहतरीन हुए हैं |
अगर लफ्जों की ज्यादा पत्तियां बिखरी हुई होगी
तो मतलब के समर हमको दिखाई दे नहीं सकते... क्या बात है!
आ० भाई मिथिलेश जी इस बोलती ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई l
फलक को चाँद भी रौशन करे केवल उजालों से |
मगर वो दाग रखता है हमेशा पास में अपने |
आदरणीय सुनील जी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय मनोज भाई इस प्रयास के मुखर अनुमोदन, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online