सहसा
छा जाता है आवेश
कुछ लगता है सनसनाने
मस्तिष्क में होने लगता है
घमासान
हाथ हठात पहुँचते है
लेखनी पर
इतना भी नहीं होता
कि तलाश लें
कोई कायदे का कागज
नोच लेता है हाथ
किसी अखबार का टुकड़ा
या किसी रद्दी का खाली भाग
और दौड़ने लगते है उस पर
अक्षर निर्बाध
अवचेतन सा मन
मानो कोई उड़ेल देता है
उसमें भावों की सम्पदा
जो स्वस्थ चित्त में
चाह कर भी नहीं उभरता
वह अभिव्यक्त हो जाता है
उस आवेश में
स्वतः अपने आप
और हम कहते हैं उसे
कविता
.(अप्रकाशित-मौलिक )
Comment
मनसभूमि पर कविता के जन्म लेने से कागज़ पर उतरने की प्रक्रिया को यथा शब्द दिए हैं आ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
बधाई
मानो कोई उड़ेल देता है
उसमें भावों की सम्पदा
जो स्वस्थ चित्त में
चाह कर भी नहीं उभरता
वह अभिव्यक्त हो जाता है
उस आवेश में!
वधाई आदरणीय गोपाल नारायन जी!
" अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ................. " |
मानो कोई उड़ेल देता है
उसमें भावों की सम्पदा
जो स्वस्थ चित्त में
चाह कर भी नहीं उभरता
वह अभिव्यक्त हो जाता है
उस आवेश में
स्वतः अपने आप
और हम कहते हैं उसे
कविता
सच काव्य उत्पति का कितना सुंदर चित्रण किया है … बिलकुल सही बात कही है आपने कागज़ के सामने आते ही लेखनी स्वयमेव उसपर शब्दों के घुँघरू बाँध अंतर्भावों की लय पर नृत्य करने लगती है और एक गीत का सृजन हो जाता है। इस सुंदर भावाभिव्यक्ति के लिए हृदय से बधाई स्वीकार करें आदरणीय डॉ गोपाल जी भाई साहिब।
आदरणीय गोपाल सर, कविता की रचनाप्रक्रिया के आधार पर कविता को परिभाषित करती बढ़िया कविता हुई है. इस प्रस्तुति पर आपको बहुत बहुत बधाई.
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