"कितने मिष्ठ भाषी,सौम्य और मिलनसार थे तेरे पापा ।आज़कल न जाने उन्हें क्या हो गया।" माँ ने राघव से कहा।
" माँ ! मुझे भी ऐसा ही लग रहा है।मैं आज़ ही अपने मनोचिकित्सक दोस्त विवेक से इस बारे में बात करता हूँ।कि इस बदले व्यवहार का क्या कारण है।"
छः महीने पुरानी बात थी ज़ब पापा रिटायर हुये थे खूब खुश थे।
" बहुत काम कर लिया ।अब तो जिंदगी जीनी है।"
बस तभी से घर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। चैनल दर चैनल ये सिलसिला बढ़ता ही गया।
सुबह होते ही हिदायतें शुरू हो जाती।" आरव को ,स्कूल ठीक से पहुँचाओ,कहीँ अपहरण न हो जाये।"
माँ पर बरसते " सजी-धजी सीरियल की औरतों की तरह मत समझना अपने को ,ये घर है।"
" साले, सब के सब चोर हैं।"महंगाई के साथ उनका ब्लड प्रेशर बढ़ने लगता।
रात होते ही घर किले में बदल जाता।" आज़क्ल किसी का भरोसा नहीं सब खूनी- डकैत हैं।" हर बात पर क्राइम पेट्रोल झलकता उनकी बातो से।
ये सारी बातें सुनकर डॉक्टर विवेक बोला-" इतनी नकारात्मकता ? अगर इनका ये हाल है तो पूरे देश का क्या होगा ?"
" अब ये देश कहाँ से आ गया बीच में " राघव बोला ।
" राघव! समस्या बड़ी विकट है।मर्ज़ और अधिक बढ़े उससे पहले रोकना पड़ेगा।"
" ज़ल्दी कुछ कर विवेक । मुझे पापा की बहुत चिन्ता हो रही है।"
" राघव ! ज्यादा कुछ नहीं करना।अंकल का टीवी देखना बन्द करवा दो सब ठीक हो जायेगा।" विवेक मुस्कुराते हुए बोला।
जानकी बिष्ट वाही
मौलिक एवम् अप्रकाशित
Comment
हा हा हा बहुत खूब
बढ़िया प्रस्तुति
बधाई
हार्दिक बधाई आदरणीय जानकी जी!आजकल के हालात को बखूबी उजागर करती रचना!यह स्थिति सचमुच भयावह होती जा रही है!बेहतरीन लघुकथा!
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