बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं
तट से चिपके रह जाने के अपने ख़तरे हैं
जो आवाज़ उठाएँगे वो कुचले जाएँगे
लेकिन सबकुछ सह जाने के अपने ख़तरे हैं
सबसे आगे हो जो सबसे पहले खेत रहे
सबसे पीछे रह जाने के अपने ख़तरे हैं
रोने पर कमज़ोर समझ लेती है ये दुनिया
आँसू पीकर रह जाने के अपने ख़तरे हैं
धीरे धीरे सबका झूठ खुलेगा, पर ‘सज्जन’
सबकुछ सच-सच कह जाने के अपने ख़तरे हैं
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
शुक्रिया आदरणीय लडीवाला जी
शुक्रिया आदरणीय गोपाल नारायन जी
बेहतरीन ग़ज़ल रचना हुई है श्री धर्मेन्द्र सिंह जी बधाई स्वीकारे
आ० धर्मन्द्र जी - बहुत ही खूबसूरत खतरे हैं . सादर .
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ जी
बहुत बहुत आदरणीय गिरिराज जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरनीय रवि शुक्ला जी, आप सही कह रहे हैं। लंबा रदीफ़ लेने पर ग़ज़ल में एकरसता आ ही जाती है। यहाँ भी ऐसा हो रहा है।
शुक्रिया आदरणीया राजेश कुमारी जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी
बढिया है. चित भी मेरा, पट भी मेरा. मिसरा उला की विसंगतियों को मिसरा सानी की सीमाओं से बराबर का जोड़ मिल रहा है. इस ग़ज़ल पर आपकी अपनी व्यक्तिगत छाप है.
शुभेच्छाएँ
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