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लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं

तट से चिपके रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

जो आवाज़ उठाएँगे वो कुचले जाएँगे

लेकिन सबकुछ सह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

सबसे आगे हो जो सबसे पहले खेत रहे

सबसे पीछे रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

रोने पर कमज़ोर समझ लेती है ये दुनिया

आँसू पीकर रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

धीरे धीरे सबका झूठ खुलेगा, पर ‘सज्जन’

सबकुछ सच-सच कह जाने के अपने ख़तरे हैं

 ----------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by गिरिराज भंडारी on November 16, 2015 at 4:07pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , बेहतरीन ग़ज़ल हुई है , सभी अशआर लाजवाब हैं , दिली बधाई कुबूल कीजिये ।

Comment by Ravi Shukla on November 16, 2015 at 3:00pm

आदरणीय धर्मेन्द्र जी शानदार ग़ज़ल हुई है.शेर दर शेर दाद  कुबूल फरमाएं...क्षमा सहित एक निवेदन अवश्‍य करना चाहेंगे ग़ज़ल में एकरसता लगी हमें  । उला में एक कथन है उसका विपरीत भाव सानी में है,  मगर उला के जवाब में सानी  में   जो  रदीफ काम कर रही हे वो अपने असर से  इस एकरसता  पर ध्‍याान नहीं जाने  दे रही।हो सकता है हम गलत हो।  सादर।


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Comment by rajesh kumari on November 15, 2015 at 11:56pm

वाह्ह्ह  वाह्ह्ह  बहुत शानदार ग़ज़ल हुई आ० धर्मेन्द्र जी शेर दर शेर दिल से दाद कुबूलें 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 15, 2015 at 10:18pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी शानदार ग़ज़ल हुई है. ग़ज़ल पर आपका रंग दिखाई दे रहा है. कठिन रदीफ़ लेकर बहुत दमदार अशआर निकाले है आपने. दिल खुश हो गया इस ग़ज़ल को पढ़कर. वाह वाह ... शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमाएं...

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