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नस्री नज़्म :- "तीसरा विश्व युद्ध"

आत्म ग्लानी से
मेरी गर्दन झुक जाती है
जब मैं यह देखता हूँ
कि इंसान ,तरक़्क़ी करते करते
इन हदों पर पहुँच चुका है
कि उसने,
पिशाच का रूप ले लिया है,
आज हम तीसरे विश्व युद्ध के
दहाने पर खड़े हैं,
इसी पिशाचता के कारण,
ताक़त की भूक
बहुत बढ़ गई है,
अब सिर्फ़,एक चिंगारी की आवश्यकता है,
और युद्ध शुरू,
परिणाम ?
तबाही ,बर्बादी
नरसंहार ,ख़ून के दरिया
लाशों के अंबार
भूक,लाचारी,
इंसानी जान की कोई क़ीमत नहीं,
सब मूकदर्शक बने हुवे हैं
और ये सब होकर रहेगा,
कौन इसे रोक पायेगा ?
आत्म ग्लानी से
मेरी गर्दन झुकी हुई है ।

समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on December 9, 2015 at 11:40pm
जनाब सुशील सरना जी,आदाब,रचना की सराहना हेतु आपका तहे दिल से आभारी हूँ ।
Comment by Samar kabeer on December 7, 2015 at 5:30pm
जनाब शहज़ाद भाई अतुकांत कविता को उर्दू में नासरी बज़्म कहते हैं|
Comment by Samar kabeer on December 6, 2015 at 10:57pm
जनाब सौरभ पांडे जी,आदाब,उस दार्शनिक का नाम याद नहीं आ रहा है,दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब किसी ने उस से पूछा था कि "तीसरा विश्व युद्ध कब होगा ?" उस दार्शनिक ने जवाब दिया था कि,मैं यह नहीं जानता कि तीसरा विश्व युद्ध कब होगा लेकिन यह बात पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि चौथा नहीं होगा ।
उस दार्शनिक की कही हुई बात इन दिनों दिमाग़ में गश्त कर रही है,यही सोच सोच कर दिल परेशान हो गया और इस रचना का जन्म हुवा ,रचना पर आपकी प्रतिक्रिया पाकर मैं धन्य हुवा,आपने रचना को अपना क़ीमती समय दिया इसके लिये आपका आभारी हूँ,बहुत बहुत धन्यवाद ।
Comment by Samar kabeer on December 6, 2015 at 10:02pm
जनाब मोहन बेगोवाल जी,आदाब ,सराहना हेतु आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ,ऐसे ही स्नेह बनाए रखियेगा ।
Comment by Samar kabeer on December 6, 2015 at 10:01pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी,आदाब,सराहना हेतु आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ,ऐसे ही स्नेह बनाए रखियेगा ।
Comment by Samar kabeer on December 6, 2015 at 10:00pm
मोहतरमा ज्योत्स्ना कपिल जी,आदाब,सराहना हेतु आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ,ऐसे ही स्नेह बनाए रखियेगा ।
Comment by Samar kabeer on December 6, 2015 at 9:57pm
जनाब सुशील सरना जी,आदाब,सराहना हेतु आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ,ऐसे ही स्नेह बनाए रखियेगा ।
Comment by Samar kabeer on December 6, 2015 at 9:56pm
मोहतरमा कांता रॉय जी,आदाब,सराहना हेतु आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ,ऐसे ही स्नेह बनाए रखियेगा ।
Comment by मोहन बेगोवाल on December 4, 2015 at 8:17pm

  आदरणीय.समर जी,  बहुत ही दिल को छु जाने वाली नज्म, जो हमें सोचने के लिए मजबूर करती है, इस असम्वेदनशील समाज के बारे 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 4, 2015 at 12:51am

जब आचरण में धर्म के नाम पर ढोंग व्यापने लगे और बातें सटीक और सार्थक होने की जगह अनावश्यक पेंचदार होने लगे तो मानवता की बात नहीं होती. फिर भी इसे समझाया नहीं जा सकता. कारण कि, श्रेष्ठता की आश्वस्ति नहीं, उसका अहंकार सर चढ़ कर बोलता है. सर्वोपरि, समझाने वाले शातिर दिखते हैं.

यही सारा कुछ इंगितों में वर्णित हुआ है, आदरणीय समर कबीर साहब, जिसकी चर्चा यह कविता कर रही है. 

आपकी संवेदना ने गंभीर तथ्य को साझा किया है, आदरणीय. हार्दिक शुभकामनाएँ 

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