सूने आंगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर
मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर
मैं समय काटता रहा विकल
दायें-बायें करवटें बदल
घिर आये मानस-अम्बर पर
स्वर्णिम सपनीले बादल-दल
बौराया घूम रहा मारुत अपनी सब शीतलता खोकर
सपनो में चल घुटनों के बल
सरिता तट पर आया था जब
कह डाला कुछ मन की मैंने
वह बज्र प्रहार हुआ था तब
सायक सा टूटा था अंतस निर्दयता की खाकर ठोकर
यह नाग आँख में है अविरल
छोड़ता निरंतर नित्य गरल
मैं जलूं, दहूँ या राख बनूँ
पर नेह, देह में रहे तरल
प्रतिमान बनूंगा मैं अपने काँधे पर निज अर्थी ढोकर
हतभाग्य रहा या शापित मै
करुणा का पात्र बना न कभी
उसका ठुकराना तो अथ था
मुझको ठुकराते रहे सभी
बस एक झलक पा जाता मै दृग–जल से पापों को धोकर
उड़ता भटके बादल सा मन
छा जाता नयनों मे सावन
जलता अन्तस में है अलाव
भीतर- बाहर सब पागलपन
भूलूंगा मैं यह व्यथा सकल चिर-निद्रा में बेसुध सोकर
सूने आंगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर
मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर
(मौलिक व् अप्रकाशित )
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उड़ता भटके बादल सा मन
छा जाता नयनों मे सावन
जलता अन्तस में है अलाव
भीतर- बाहर सब पागलपन
भूलूंगा मैं यह व्यथा सकल चिर-निद्रा में बेसुध सोकर
सूने आंगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर
मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर//
बहुत ही सुन्दर भाव पिरोए हैं। हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।
आ० समीर कबीर साहिब - आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आ० श्याम् नारायन वर्मा जी आपका बहुत- बहुत आभार.
बहुत सुंदर और भावपूर्ण रचना हुई है | हार्दिक बधाई सादर |
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