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ये सिलसिला .......

सच ! कितना स्वार्थी है इंसान
हर जीत पे मुस्कुराता है
हर हार से जी चुराता है
अपने स्वार्थ की पगडंडी पर अक्सर
वो हर रास्ते से नाता जोड़ लेता है
हर मोड़ पे इक दर्द को छोड़ देता है
हर कसम तोड़ देता है
मुहब्बत की पाक इबारत पे
वासना की कालिख पोत देता है
जिस्म के रोएँ रोएँ में
नफ़रत की फसल छोड़ देता
किसी ज़िंदगी को नरक कर
उसके अरमानों को रौंद देता है
किसी की पाकीज़गी को
चीत्कारों से ढक देता है
उफ़ ! कितनी भयावह है ये सोच
जीवन के समस्त मूल्य
धराशायी होते नज़र आते है
दरिंदे हर कदम मुस्कुराते हैं
भूल जाते हैं कि
मोमबती की एक जुगनू सी चमक
तिमिर के एक छत्र साम्राज्य को
तहस नहस कर देती है
एक चिंगारी जब दावानल बन जाती है
आसमां के सीने तक
अपनी तपिश पहुंचाती है
मिट जाती है ख़ुद मगर
निरुत्तर समाज को
चुभते सवाल दे जाती है
आज मैं
कल वो
फिर कोई ओर
क्या ,चलता रहेगा
ये सिलसिला
यूँ ही ?

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on December 22, 2015 at 9:21pm

आदरणीया कांता रॉय जी प्रस्तुति को अपनी आत्मीय अभिव्यक्ति देकर रचना में  निहित भावों को समर्थन देकर जो मान दिया है उसके लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।  

Comment by Sushil Sarna on December 22, 2015 at 9:19pm

आदरणीया कांता रॉय जी प्रस्तुति में निहित भावों को समर्थन देती आपकी स्नेहिल अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार। 

Comment by pratibha pande on December 22, 2015 at 6:52pm

टूटना  तो चाहिए ही ये सिलसिला ,वरना  संवेदनाओं ,कोमल भावनाओं का वजूद ही धीरे धीरे ख़त्म हो जायेगा , संवेदनशील रचना कर्म के लिए आपको साधुवाद आदरणीय 

Comment by kanta roy on December 22, 2015 at 1:22pm

उफ़ ! कितनी भयावह है ये सोच
जीवन के समस्त मूल्य
धराशायी होते नज़र आते है
दरिंदे हर कदम मुस्कुराते हैं----------- वाकई में ये सोच बहुत ही भयावह है। मानवता मर रही तो है। एक चिंगारी जब दावानल बनाने की पुरजोर कोशिश करती फिर अंततः धरासाई ही होती है। वैश्वीकरण के युग में अपना समय व्यर्थ में किसी को कोई यु ही नहीं देता है। अब तो पहले देना फिर पाना होता है। बधाई आपको आदरणीय सुशील सरना जी इस सार्थक रचना के लिए।

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