कविता :-खुली किताब हूँ मैं
खुली किताब हूँ मैं
तुम कभी खुलकर इसे पढ़ना
संवरना रूबरू इसके
और अपने रूप को गढना |
ये आईना बनेगा
तुम मुझे देखोगी अपने में
वही एक शख्स हूँ मैं
तुम जिसे पाती थी सपने में |
ये अक्षर भाव सारे
ये सभी सारे तुम्हारे हैं
चमकती ज्ञान गंगा
चाँद ये तारे तुम्हारे हैं |
मैं तुममे हूँ तू मुझसे है
ये सृष्टि हमसे तुमसे है
सुखद ये पल ये अनुभव
रंग गुलाबी रंग तुमसे है |
ये पन्नों का पलटना
देखो ऋतुओं का बदलना है
तुम्हारी उंगली रखने से
नरम शब्दों का गलना है |
पिघलती मोम सी स्याही
बगावत को बुलाती है
रवायत को ये धोखा है
मोहब्बत गुनगुनाती है |
गरम सांसो का छलना
गर्द गुबारों का ढल जाना
सभी कहते हैं तुमसे
आज पढ़ लो और कल जाना |
खुली किताब हूँ मैं
तुम कभी खुलकर इसे पढ़ना
संवरना रूबरू इसके
और अपने रूप को गढना |
(अभिनव अरुण)
Comment
ये पन्नों का पलटना
देखो ऋतुओं का बदलना है
तुम्हारी उंगली रखने से
नरम शब्दों का गलना है |
पिघलती मोम सी स्याही
बगावत को बुलाती है
रवायत को ये धोखा है
मोहब्बत गुनगुनाती है |
waah waah...Arun ji..bahut hi badhiya kavita...hardik badhai is khoob soorat kruti ke liye aapko...
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