122-122-122-122
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मैं रूठा हूँ तुमसे, मना क्यूँ न लेती।
अदाओं का जादू, चला क्यूँ न लेती।।
गज़ब का नशा है जो,तेरी नज़र में।
तो हाला ये तू, आज़मा क्यूँ न लेती।।
पता है मुझे सिर्फ़, धोखाधड़ी है।
हक़ीक़त पता तू,लगा क्यूँ न लेती।।
जो डरती है हासिल,गँवाने से ग़र तू।
तो इन आंसुओं को छिपा क्यूँ न लेती।।
सुना है तेरे जिस्म में दामिनी है।
चिता पर हूँ लेटा,जला क्यूँ न देती।।
मौलिक एवम् अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब , पूरी ग़ज़ल बहुत उम्दा है , बहुत बहुत बधाई, सादर , |
अच्छा है भाई जी ...........................
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