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ठोकर
एक हल्का सा धमाका हुआ और रेल की पटरी एक जगह से ऊखड़ गयी। कोहरे भरी सुबह को और घना करते बारूद के धुऐं पर एक उचटती नजर डाल वो सोचने लगा। "हमारे जीवन में धुंध की तरह छाया अँधेरा भी अब जल्दी ही छंट जायेगा। घर की टूटी छत, मां की बीमारी, बहन का गौना और खाली पेट सोने की आदत। बस कुछ ही पल में ट्रेन यहाँ से गुजरेगी और........।"
ट्रेन की आती आवाज ने उसे सतर्क कर दिया। दिमाग अभी भी विचारो में उलझा था। "बाबा तुमने कहा था न कि मेरे सपनो को मेरा बेटा पूरे करेगा। अब बहुत जल्दी आप की हर बात को मैं पूरा कर दूंगा।" दूर कोहरे को चीरकर आती ट्रेन की लाइट अब चमकने लगी थी।
"अब मेरा यहाँ रुकना ठीक नहीं!" सोचते हुये वो ट्रेन की दिशा में पटरी के साथ साथ आगे बढ़ने लगा था कि एक पत्थर से लगी ठोकर से वो नीचे गिर पड़ा। अनायास ही जाने कैसे बाबा के कहे आखिरी शब्द उसके दिलो-दिमाग पर उभर आये। "बेटा सपनो के मकान बहुत कच्चे होते है इनकी बुनियाद कभी किसी की बददुआओ पर मत रखना क्योंकि जब कुदरत की ठोकर लगती है तो........!" आती ट्रेन की तेज चमक चेहरे पर पड़ते ही जैसे वो सोते से जाग गया और अचानक ही उसने दोनों हाथ उठाकर चिल्लाते हुये ट्रेन की ओर दौड़ लगा दी।

मौलिक व् अप्रकाशित

(विरेंदर वीर मेहता)

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Comment by Hari Prakash Dubey on February 2, 2016 at 2:31am

वाकई जब कुदरत की ठोकर लगती है तो कोई समझ ही नहीं पाता की ये हुआ क्या ,सुन्दर रचना आ. वीर भाईसाहब ,हार्दिक बधाई स्वीकार करें ! सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 29, 2016 at 7:24pm
दुर्दांत घटना को अंजाम देने की ओर बढ़ते क़दमों का समय रहते सम्हलना.... . असरदार तरह से अभिव्यक्त हुआ है
अंदर की आवाज को जो सुन सके,उस चेतना का हृदय में जीवित रहना ही ऐसे अनायास बदलाव की आश्वस्ति हो सकता है।
सशक्त प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 29, 2016 at 3:09pm
सुंदर सन्देश देती रचना।बधाई आदरणीय।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on January 28, 2016 at 10:06pm
आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी रचना पर आपकी उपस्थिति और स्नेह भरे शब्दों के लिये तहे दिल से आभार। वास्तविक जीवन में शायद हर मनुष्य को लगी ठोकर उसके मन की आवाज के रूप में सन्देश देना चाहती है लेकिन शायद अधिकाँश लोग उस सन्देश को समझ ही नहीं पाते। सादर।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on January 28, 2016 at 10:03pm
आपको कथा अच्छी लगी। सादर आभार आदरणीय मुकेश श्रीवास्तव जी।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on January 28, 2016 at 10:01pm
सादर आभार भाई तेजवीर सिंह जी, रचना पर समय देंने और प्रोत्साहन देने के लिए। सादर।
Comment by TEJ VEER SINGH on January 28, 2016 at 12:44pm

हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी!बहुत शानदार और संदेशपरक प्रस्तुति!दूसरों के लिये कुंआ खोदने वाला कभी कभी खुद भी उसमें गिर जाता है!

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on January 28, 2016 at 11:50am

niceee

Comment by pratibha pande on January 28, 2016 at 10:33am

वाह ,बहुत सुन्दर ,काश ऐसी समझदारी की  ठोकर हर वो इंसान जो विध्वंसक कामों से जुड़ा है सही समय पर खा लेता ,बधाई इस सशक्त  रचना पर आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहता जी 

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