१२२२/१२२२/१२२२/१२२२
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कभी बदनाम गलियों में भटकती हैं तमन्नाएँ,
कभी खुद की निगाहों में खटकती हैं तमन्नाएँ.
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हवस की मकड़ियाँ बुनती है दिल में जाल हसरत के,
जहाँ मौका मिला, आकर, अटकती है तमन्नाएँ.
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तमन्नाओं का अंधड़ रोक पाना है बहुत मुश्किल,
मगर दिल में बसा हो रब, ठिठकती हैं तमन्नाएँ.
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कोई इंसान जब अपनी ख़ुदी को जीत लेता है,
तो फिर क़दमों में उस के, सर पटकती हैं तमन्नाएँ.
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सफ़र जब जिस्म से बाहर का करने रूह चलती है,
चिता की लकड़ियाँ बन कर चटकती हैं तमन्नाएँ.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. दुबे जी
सफ़र जब जिस्म से बाहर का करने रूह चलती है,
चिता की लकड़ियाँ बन कर चटकती हैं तमन्नाएँ.....गज़ब ,बहुत सुन्दर ग़ज़ल ,बहुत -बहुत बधाई आ. नीलेश जी ! सादर
शुक्रिया आ. मुकेश जी
शुक्रिया आ. सतविंदर जी
शुक्रिया आ. समर साहब
शुक्रिया आ. तेज वीर सिंह जी
शुक्रिया डॉ प्राची जी
शुक्रिया रवि जी
शुक्रिया दिनेश भाई
हवस की मकड़ियाँ बुनती है दिल में जाल हसरत के,
जहाँ मौका मिला, आकर, अटकती है तमन्नाएँ. bahut hee khoobsoorat GAZAL - dheron badhaee - her She'r lazawaab bhaee jee
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