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बासन्ती  गन्ध
-----------
सोचा था,
उस पार ,
शान्त निर्विघ्न क्षणों में,
पहुंच,
तुम्हारी मधुरस्मृति को सतत करूंगा।।


अलसाये ललचाये मन की तृप्ति हेतु,
नवकल्पित स्वरूप में,
खुद को व्यथित करूंगा।।


पर हाय! निठुर इस विपुल पवन के
तीक्ष्ण शूल,
ले आये,
 बासन्ती  गन्धयुक्त मधु झरित फूल।।


रह गया भ्रमित इस पार,
प्रिये!
उस पार.…
तुम्हारी याद रही.…
अब बतलाओ ,
मैं,
मधुर तुम्हारे संस्पर्श को...
किन यत्नों से प्राप्त करूंगा??
---
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr T R Sukul on February 6, 2016 at 9:59pm

आदरणीय महोदय शेख साहब! रचना पर अपने हृदयोद्गार का सौंदर्य विखेरने के लिए विनम्र आभार।

Comment by Dr T R Sukul on February 6, 2016 at 9:59pm

आदरणीय महोदय  समर कबीर साहब ! रचना पर अपने मनोभावों को प्रकट करने के लिए अनेकानेक धन्यवाद। 

Comment by Sushil Sarna on February 6, 2016 at 7:04pm

आदरणीय टी आर शुक्ल जी इस आतंरिक अंतर्द्वंद को समेटे गहन भावों की  प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई। 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 6, 2016 at 6:44pm
बहुत ही भावपूर्ण कौशलपूर्ण अभिव्यक्ति। हृदयतल से सादर बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय डॉ.टी. आर. सुकुल जी।
Comment by Samar kabeer on February 6, 2016 at 2:25pm
जनाब डॉ.टी.आर.सुकुल जी आदाब,बहुत ख़ूब वाह वाह,इस सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें !

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