ग़ज़ल
गा गा लगा लगा/ लल/ गा गा लगा लगा
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झीलों में ऐसे..... चाँद डिबोता हूँ आज भी,
आँखों में रख के आप को रोता हूँ आज भी.
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अब तक दरख्त जितने उगाए, बबूल हैं,
दिल में मगर मैं यादों को बोता हूँ आज भी.
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आदत में था शुमार तेरे साथ जागना,
तेरे बगैर देर से सोता हूँ आज भी.
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नमकीन पानियों से जो रंगत निखरती है,
रुख़सार आँसुओं से मैं धोता हूँ आज भी.
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काँधे पे इक सलीब उठाए फिरा करूँ,
नाकामियों का बोझ मैं ढ़ोता हूँ आज भी.
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उसका पता मुझे जो मिला वो ग़लत मिला,
ख़ुद को तलाश-ए-यार में खोता हूँ आज भी.
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जुगनू नहीं, चिराग़ नहीं शम्स भी नहीं,
लेकिन तेरे ही “नूर” सा होता हूँ आज भी.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सौरभ सर
इस बहुत ही अच्छी ग़ज़ल के लिए हृदयतल से दाद कह रहा हूँ, आदरणीय नीलेशजी.
मिसरों का वज़न - २२१ २१२१ १२२१ २१२ या गागालगा गालगाल लगागाल गालगा की रह लिखें.
शुभेच्छाएँ
शुक्रिया आ. रवि जी
आदरणीय निलेश जी बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं .
शुक्रिया आ. जयनीत भाई
शुक्रिया आ. मिथिलेश जी ..
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
शुक्रिया आ. समर साहब
शुक्रिया आ. सुशिल जी
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