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जिन्न(लघुकथा )राहिला

गृहस्थी का काम मिनट -मिनट को पकड़ कर पूरा किये जा रही थी । सारा दिन चकरघिन्नी बनने के बावजूद किसी ना किसी के कोप का भाजन बन ही जाती । मुझे समझ नहीं आता आखिर किस ने ये दुनियादारी के नियम बनाये और किस ने सारे काम का बंटवारा इतने अन्यायपूर्ण ढंग से किया।हाथ पर हाथ धरे सुविधाओं का रसपान करने वाले घर के लगभग सभी सदस्यों के पास "आका "वरदान था और मैं? मैं किसी घटिया सी कहानी के उस जिन्न की तरह थी जो अपने आका के हुकुम पूरा करने में लगा रहता।मैं अकेली थी, तो बहुत दुःखी थी लेकिन तब तक, जब तक कि मैंने जिन्न होने वाली बात छुपा कर रखी थी।लेकिन आज अचानक मेरे मुंह से ये राज खुल गया । और फिर मेरे जैसी ढेर सारे जिन्न मेरी सखियां बन गये ।
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Rahila on February 24, 2016 at 11:24am
बहुत शुक्रिया आदरणीय सर जी! मैं आगे से ध्यान रखूगीं । आपने इस विधा की बेहद महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है । इसके लिये सादर आभार ।

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 24, 2016 at 10:54am

भाव बेशक अच्छे हैं, लेकिन शिल्प और कहन के हिसाब से यह लघुकथा बहुत कमज़ोर है राहिला जीI लघुकथा में स्व-संवाद शैली कोई बेहतर शैली नहीं मानी जातीI उम्मीद है कि आप नज्र-ए-सानी फरमायेंगीI  

Comment by Rahila on February 23, 2016 at 10:23am
बहुत -बहुत आभार आपका आदरणीया कांता दी!जितनी सुन्दर आपकी टिप्पणी ,उतनी ही सुखद आपकी उपस्थित । सादर नमन
Comment by kanta roy on February 23, 2016 at 9:22am
बहुत सारी जिन्न ! और वे सखियाँ ! ओह , यह तो बहुत गहरी बात कर दी आपने । सुना है जिन्न के दिन भी फिरने वाले है । चलिए उस दिन का जरा इंतजार करते है । बेहतरीन लघुकथा आदरणीया राहिला जी । बधाई कबूल फरमाईयेगा ।
Comment by Rahila on February 22, 2016 at 3:42pm
इतनी गहनता के साथ अवलोकन!!मैंने नहीं सोचा था कि आप मेरी रचनाओं के शीर्षक को इतनी गंभीरता के साथ लेगें।इस तारीफ़ के लिये तहेदिल से शुक्रिया । हां आप जिस लाइन के बारे में कह रहे है वाकई बहुत बार पढ़ा और बदला फिर फाइनल कर पाई थी उसे । मैं आपकी प्रतिक्रिया का ही इंतेजार कर रही थी आदरणीय सुनील जी! बहुत आभार आपका जो आपने रचना की तारीफ़ कर मान बढ़ाया ।सादर
Comment by Rahila on February 22, 2016 at 1:38pm
आदरणीय प्रतिभा दी! इस कदर हौसला अफज़ाई पा कर दिल झूम उठा । और वहीं बहुत ज्यादा जिम्मेदारी का भी एहसास बड़ गया । कोशिश करूंगी आप सब की उम्मीदों पर खरी उतर पाऊं । सादर
Comment by pratibha pande on February 22, 2016 at 1:25pm

  पहले जिन्न सिर्फ घर में ही मुस्तैद रहता था ,पर आज तो बाहर भी रहना पड़ता है ,और दोनों जगह मुस्तैदी की दरकार हर दिन बढती ही जाती है,   राहिला जी ,आप हर दिन लघुकथा  विधा में नई ऊँचाइयाँ छू रही है ,ढेरों बधाई व् शुभकामनाएँ 

Comment by Rahila on February 21, 2016 at 3:57pm
बहुत आभार आदरणीया नीता दी! यकीनन गृहस्थी में ढेरों अंधे काम होते है जिन्हें करते-करते एक हाउसवाईफ को सांस लेने की फुर्सत नहीं मिलती। लेकिन फिर भी ’सारा दिन तुम्हें काम ही क्या है’जैसे जुमले अक्सर आहत कर जाते है । आपने रचना के मर्म को समझा ,बहुत शुक्रिया ।सादर
Comment by Rahila on February 21, 2016 at 3:51pm
आदरणीय समर कबीर सर जी! आपको रचना पसंद आई मेरा तो लिखना ही सार्थक हो गया ।बहुत आभार ।सादर नमन।
Comment by Nita Kasar on February 21, 2016 at 3:19pm
यंत्रवत मशीन की तरह वह घर संभाले तब भी उसे हाउसवाइफ का तमग़ा मिलता है अपने ही संवेदनहीन हो सकते है।क्योंकि उनके लिये जिन्न मौजूद है।बिल्कुल अलग ही परिप्रेक्ष्य में लिखी कथा के लिये बधाई आद० राहिला जी ।

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