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सारे धर्मों की सही बात उठाई जाए,
उसकी इक बूँद हर इन्साँ को पिलाई जाए।
है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा
सूखे होठों की चलो कहाँ प्यास बुझाई जाए।
आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ
अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।
जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन
मेहंदी प्यार की प्यार की मेहंदी जो हाथों में रचाई जाए।
खौफ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
शक्ति ऐसी किसी सागर में डुबाई जाए।इनकी तकलीफ़ भला कैसे मिटाई जाए।
आग में जिसकी झुलसते झुलसती हैं ये कूचे-गलियाँ
क्यों न हर बात वही जड़ से मिटाई जाए।
बह न जाए कहीं आँखों से शरम का पानी
दिल के बंजर आँगन में चलो मेढ़ बनाई जाए।
आज भी घास की रोटी ही निवाला जिनका
उनकी रूठी हुई किस्मत भी मनाई जाए।
मौलिक और अप्रकाशित
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सारे धर्मों की सही बात उठाई जाए,
उसकी इक बूँद हर इन्साँ को पिलाई जाए।
है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा
सूखे होठों की चलो प्यास बुझाई जाए
सूखे होठों की कहाँ प्यास बुझाई जाए?
मैंने मतले से लिंक करते हुए इस शेर की कहा था...उसमें जिस बूँद को पिलाने की बात है, दुसरे शेर में उसी बूँद से प्यास के बुझाने की बात कही थी जैसे मुक्तक में कहते हैं । पर अब याद आया की ऐसा सपोर्ट ग़ज़ल में दोष माना जाता है। हर शेर अपने आप में मुक्त व् पूर्ण होता है।
आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ
अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।
जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन
मेंहदी प्यार की हाथों में रचाई जाए।
.....प्यार की मेहँदी हथेली पे रचाई जाए।....क्या मेहंदी में दी को गिरा के पढ़ा जा सकता है?
खौफ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
शक्ति ऐसी किसी सागर में डुबाई जाए।
आग में जिसकी झुलसती हैं ये कूचे-गलियाँ
क्यों न हर बात वही जड़ से मिटाई जाए?
बह न जाए कहीं आँखों से शरम का पानी
दिल के बंजर में चलो मेढ़ बनाई जाए।
वैसे अब ये पानी कम ही नज़र आता है, बचे खुचे पानी कोबचाने का भाव लाना चाहती थी , शायद असफल रही
.....दिल की घाटी में चलो मेढ़ बनाई जाए......क्या ये सही रहेगा?
आज भी घास की रोटी ही निवाला जिनका
उनकी रूठी हुई किस्मत भी मनाई जाए।
आभार सहित
वाह ! बहुत सुन्दर बदलाव सुझाया आ० समर कबीर जी . आभार
सादर
अब मेरे जैसा घोर फ़ैक्चुअल आदमी ऐसे क्लिष्ट इंगित को क्या समझ पायेगा कि आप उस शेर के माध्यम से न्यूक्लियर पावर का ध्यान कर रही हैं ! हा हा हा हा.......
आजकल तो ख़ौफ़ का मतलब होता है दहशतग़र्दों की कारिस्तानियों, माने आतंकवादियों की नीचता, से उपजा भाव!
आ. सौरभ जी
शेर दर शेर ग़ज़ल के विश्लेषण और कमियां बताने के लिए आपकी कृतज्ञ हूँ
सभी सुधार करके ग़ज़ल पुनः पेश करती हूँ
शक्ति वाले शेर में मैंने न्यूक्लिअर पावर के खौफ को जताना चाहा था, रेडियोएक्टिव पावर को तो सागर में ही डुबाया जा सकता है , अब उस शेर को देख कर कृपया अपेक्षित सुधार सुझाएं
सादर धन्यवाद
हौसला अफ़ज़ाई और गलती की और इंगित करने के लिए सादर धन्यवाद आ.समर कबीर जी
मतला आकर्षित करता हुआ है. नीरज की मुक्तिका (जो कि नीरज द्वारा ही ग़ज़ल के लिए एक प्रवर्धित नाम दिया गया है) का एक मशहूर युग्म (शेर) याद आ गया - इन्सान को इन्सान बनाया जाये .. .
है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा
सूखे होठों की चलो प्यास बुझाई जाए।
तार्किकता के हिसाब से समन्दर से साहिल की भले प्यास बुझती हो. होठों की प्यास समन्दर के पानी से कौन बुझाता है ? यानि इंगित बेतुक का हुआ न ? मुझे तो लगा. इस पर विद्वान पाठक अपनी बात अवश्य कहेंगे. प्रतीक्षा रहेगी.
आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ
अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।
अरे ग़ज़ब ! बहुत खूब ! सही बात !
कपार पर चढ़े, मनबढ़वे अब कान में ज़ोर से टूऽऽऽ करने लगे हैं !! दिमाग़ झनझनाने लगा है अब !
जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन
मेंहदी प्यार की हाथों में रचाई जाए।
आदरणीय समर साहब ने जिस ओर इशारा किया है, उसे संज्ञान में लें. मेहँदी का वज़न २ २ (मेंह्दी) होता है, न कि २१२. जैसा कि देवनागरी में इस शब्द को हम अक्षरी देते हैं. हिन्दी में मेहँदी को में+हँ+दी की तरह लिखने की परिपाटी है. लेकिन ध्यान से देखिये तो यह मे+हँ+दी उच्चारित होता नहीं. बल्कि ’मेंह्दी’ ही उच्चारित होता है.
खौफ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
शक्ति ऐसी किसी सागर में डुबाई जाए।
शक्ति को सागर में डुबाने की बात समझ में नहीं आयी. अगर आपको ख़ौफ़ के बर अक्स ओसामा का हश्र याद आ रहा है और आपका ग़ज़लकार ऐसी ही कुछ उम्मीद अन्य दहशतग़र्दों को लेकर करता है, तो आप शायद अपनी जगह सही हैं. लेकिन ये शेर कुछ और पाये के लिए छटपटा रहा है.
आग में जिसकी झुलसते हैं ये कूचे-गलियाँ
क्यों न हर बात वही जड़ से मिटाई जाए।
झुलसते या झुलसती ? कुचे और गलियाँ को आपने द्वन्द्व सामासिक चिह्न से जोड़ा है न ? तो फिर अंतिम संज्ञा के अनुसार ही क्रिया होगी. फिर वही को वहीं कर दें.
वैसे उला के मिसरे सापेक्ष सानी का मिसरा तनिक और बल चाहता है.
बह न जाए कहीं आँखों से शरम का पानी
दिल के बंजर में चलो मेढ़ बनाई जाए।
कहन का इंगित तो कमाल है ! लेकिन दिल के लिए बंजर शब्द तनिक फिट नहीं बैठरहा है. दिल अगर बंजर होता तो आँख से शरम का पानी निस्सृत होता ही नहीं. दिल केलिए विशेषण को तनिक और ग्राह्य होना चाहिए. ऐसा हमें लगता है. देखियेगा.
आज भी घास की रोटी ही निवाला जिनका
उनकी रूठी हुई किस्मत भी मनाई जाए
बढ़िया शेर हुआ है !
आदरणीया प्राचीजी, आपको ग़ज़ल में इतनी शिद्दत से अभ्यास करते देख कर मन वाकई प्रसन्न है. वह दिन दूर नहीं आप हिन्दी भाषा की एक गंभीर ग़ज़लकार के तौर पर सुनी-पढ़ी जायेंगी.
दिल से दाद कुबूल कीजिये.
सादर
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