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प्राची मैडम आपको बहुत बहुत बधाई हो । सभी की वेदना को बड़े ही सुंदर शब्दों में संकलित किया है
कहो तो बता दूँ कि क्या चाहती हूँ।.............नहीं जानते क्या कि "क्या चाहती हूँ?"
तुम्हारे लिए हर दुआ चाहती हूँ।
दबी सी रही ज़िन्दगी नीँव जैसी
कि अब आसमां में उठा चाहती हूँ। ..............सर अब आसमाँ में उठा चाहती हूँ
निभाओ मेरा साथ या छोड़ जाओ
कहाँ तुमको खुद से बँधा चाहती हूँ।.........................तुम्हें भी कहाँ बाँधना चाहती हूँ ?
गँवाया बहुत कुछ तेरी राह चल कर
दुबारा सभी कुछ मिला चाहती हूँ।.................मिले अब सभी दोगुना चाहती हूँ
सज़ा बिन किये जिन खताओं की पाई
करूँ आज हर वो खता चाहती हूँ।.............मुझे ये इसी प्रारूप में ज्यादा सही लग रहा है, प्रश्न करना और साथ में चाहती हूँ कहना कुछ असहज लग रहा है. या तो पूछती हूँ रदीफ़ होता ..
हुनर है सँजोना ये रिश्तों की पूँजी
बुज़ुर्गों से ये सीखना चाहती हूँ।...................रिश्तों की पूंजी को संजोए सखना यंग जनरेशन के लिए कितना मुश्किल है आदरणीय, कोई बुज़ुर्ग ना हो साथ तो एहसास होता है.. बुज़ुर्ग शब्द को सिर्फ इमोशनल इफेक्ट के लिए कटी नहीं डाला गया था. लेकिन क्या इमोशनल इफेक्ट के लिए भी डाला जाए तो क्या ऐसा प्रयोग सही नहीं?
पता है मुझे तुम गज़ब पारखी हो
तुम्हें जीतने की अदा चाहती हूँ।............आप सम विधा पारखियों की नज़र से अशआर गुजरें , और क्या चाहिए :)))
सादर
बिलकुल सही फरमाया आदरणीय नादिर खान जी, गलती का पता चलते ही उसे सुधारना भी चाहिए और दूसरों से भी आवश्यकतानुरूप अपनी सीख ज़रूर ही सांझा करनी चाहिए. शुक्रिया
सादर.
आदरणीय सौरभ जी ,
सबसे पहले तो हाथ जोड़ कर क्षमा की प्रत्युत्तर देर से दे पा रही हूँ.
लेकिन यकीन मानिए मंच पर मेरी रचनाओं पर हर किसी के द्वारा इंगित हर सूक्ष्म से सूक्ष्म त्रुटी और सुधार की गुंजाइश पर मेरा पूरा ध्यान रहता है..और चिंतन मनन चलता रहता है, जब तक वो सुधार हो न जाए.
बदलाव कर अशार पुनः पेश करती हूँ
ग़ज़ल पर शेर दर शेर आपकी शिल्पगत समीक्षा के लिए दिल से धन्यवाद.
ग़ज़ल प्रयास की सराहना कर हौसलाअफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद आ० कान्ता रॉय जी , आ० लक्ष्मण धामी जी , आ० गिरिराज भंडारी जी, आ० जयनित मेहता जी, आ० अन्नपूर्णा बाजपेयी जी, आ० सुशील सरना जी, आ० गुमनाम पिथौरागढ़ी जी, आ० बृजेश कुमार जी.
आदरणीय सौरभ सर ने बड़ी आसानी से और बढ़िया ढंग से समझाया जिससे हम सब लाभान्वित हुए। ...
आदरणीया प्राची जी आपने जिस तरही मुशायरे का ज़िक्र किया उसमें हमने भी "ख़ुशी बन के सबकी लुटा चाहता हूँ" का प्रयोग किया था जो बाद में हमें पता चला की गलत है और जब कोई चीज़ पता चल जाये तो साझा कर देना बेहतर है ।
सादर। ....
बेहद खूबसूरत
वाह कमाल ग़ज़ल कही है बधाई वाह हर शेर कमाल ........................
वाह आदरणीय सौरभ सर डॉ प्राची जी के शेर दर शेर की समीक्षा और सुझावों से बन्दे की जानकारी में इज़ाफ़ा हुआ है। हार्दिक धन्यवाद और आभार सर।
कहो तो बता दूँ कि क्या चाहती हूँ।
तुम्हारे लिए हर दुआ चाहती हूँ।
आदरणीया, मतले को और प्रभावी बनाया जा सकता है. आपको इसका इशारा मिल चुका है. उला में क्ण्ट्राडिक्टिंग तथ्य रख कर सानी में दुआ चाहने की बात की जा सकती है ताकि प्रेम या केयरिंग नेचर का यह अत्यंत प्रभावी पक्ष उभर कर आवे. जैसे माँ बच्चे को थप्पड़ लगाती है मगर यह उसकी दुआओं का एक ढंग है.
दबी सी रही ज़िन्दगी नीँव जैसी
कि अब आसमां में उठा चाहती हूँ।
शाइरा की ज़िन्दग़ी अबतक नींव पर दबी रही और शाइरा अब आसमान में उठना चाहती है ? खास फ़र्क नहीं महसूस हो रहा होगा. अपनी ज़िन्दग़ी तो ’मैं’ ही हूँ समझने के कारण ! मगर ऐसा कहना बहुत सही नहीं माना जायेगा. फिर, कहन कुछ यों हो - दबाये रही ज़िन्दग़ी नींव पर ही .. या ऐसा ही कुछ.
निभाओ मेरा साथ या छोड़ जाओ
कहाँ तुमको खुद से बँधा चाहती हूँ।
सानी - तुम्हें भी कहाँ बाँधना चाहती हूँ ?
ज़ुबाँ से मुकरना कोई तुमसे सीखे
मैं सब कागजों पर लिखा चाहती हूँ।
जी.. सही
न दिल पर तुम्हारे कोई बोझ आए
कहाँ एक भी वायदा चाहती हूँ।
वाह वाह !
गँवाया बहुत कुछ तेरी राह चल कर
दुबारा सभी कुछ मिला चाहती हूँ।
सानी अवश्य व्याकरण की दृष्टि से कमज़ोर है. मिला को हुआ करना भी प्रथम द्ष्ट्या विकल्प हो सकता है.
सज़ा बिन किये जिन खताओं की पाई
करूँ आज हर वो खता चाहती हूँ।
सानी - करूँ क्यों न हर वो खता, चाहती हूँ..
या, ऐसा ही कुछ. क्यों कि जो करना है वो ’आज’ ही या ’आज ही से’ करना है न ..क्यों कि जो होना था वो तो हो गया !
हुनर है सँजोना ये रिश्तों की पूँजी
बुज़ुर्गों से ये सीखना चाहती हूँ।
उला - ये रिश्तों की पूँजी सँजोना हुनर है
सानी - हुनर ये मैं फिर सीखना चाहती हूँ ...
सीखने केलिए बुज़ुर्ग़ों की बाध्यता क्यों हो ? शेर को सिवा भावनात्मक कर देने के इस संज्ञा की क्या आवश्यकता है ?
पता है मुझे तुम गज़ब पारखी हो
तुम्हें जीतने की अदा चाहती हूँ।
अय हय ! ज़रूर-ज़रूर ! जीत जाने के पूरे आसार हैं जी.. :-)))
आप तो आजकल कमाल करने पर लगी हैं, आदरणीया !
दाद दाद दाद
शुभ-शुभ
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