For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

अधकढ़ा गुलाब (कहानी)

अधकढ़ा गुलाब
“अरे, आप अँधेरे में क्या कर रही हो? कौन सा खजाना खोल कर बैठी हो, मम्मा, जो हमारी आवाज़ तक नहीं सुन पा रही हो?”
शैली की आवाज़ से विचारों मे डूबी मृदुला वर्तमान में वापस आई.
“नहीं बेटा कुछ नहीं,” कह सामान समेटना चाह ही रही थी, कि दूसरी बेटी शिल्पी भी आ खड़ी हुई.
“प्लीज़ मम्मा, आज तो दिखा ही दो क्या है इस बैग में जो आप हमेशा अकेले में खोलती हो और किसी दूसरी दुनिया मे चली जाती हो!”
“क्या है? ऐसा कुछ भी तो नहीं. बस कुछ पुराने कपड़े और कागज़ वगैरहा हैं. चलो छोड़ो! तुम लोगों को भूख लगी होगी, मैंने कटलेट की तैय्यारी करके रखी है. चलो गर्म-गर्म खिलाती हूँ.” मृदुला ने टालते हुए झटपट सामान समेट अलमारी बंद की और किचन में पहुँच गई.
सुबह से कॉलेज गईं बेटियाँ, अब तीसरे पहर लौट कर आईं थी. पीछे से मृदुला को समय मिला तो अपनी अलमारी खोल सामान ठीक करने लगी थी. तभी अपनी यादों की दुनिया में उतर गई और बच्चों के आने तक का पता ना चला.
दो किशोर बेटियों की माँ, मृदुला, पढ़ी-लिखी, अपने छोटे से संसार में रमी, सम्पूर्ण समर्पित गृहणी थी. व्यवसायी पति और दोनों बेटियों तक ही उसकी दुनिया सिमटी थी. माँ जैसी ही सुंदर सुंदर प्यारी बेटियाँ और बेहद प्यार करने वाले पति. कुल मिला कर, सुखी परिवार.
कटलेट खिला कर कॉफी भी बना लाई थी मृदुला.
“और बताओ छोटू कैसा रहा कॉलेज का पहला दिन?” कॉफी का मग थमाते हुए उसने छोटी बेटी से पूछा.
“बहुत अच्छा रहा मम्मा! सारे फ्रेंड्स साथ हैं तो लगा ही नहीं दूसरी जगह हूँ... और फिर मेरी प्यारी दीदी भी तो है.” शिल्पी ने खुश होते हुए कहा, तो मृदुला के दिल से थोड़ा बोझ कम हुआ.
फिर शिल्पी अपने दिन भर के अनुभव सुनाती रही. बातों में माँ बेटियाँ कुछ यूँ व्यस्त हुईं, कि कब अँधेरा घिर आया पता ही ना चला. दोनों को बाते करता छोड़ मृदुला रात के खाने की तैय्यारी के लिए फिर से रसोई घर में आ गई. बेटियों की बोलनें की आवाज़ और बीच-बीच में हँसने का स्वर सुन मृदुला मुस्कुराती रही. बेटियों के दूर से आते स्वर ऐसे लग रहे थे जैसे फलदार वृक्ष पर चहचहाती चिडियाँ अपनी खुशियाँ बाँट रही हो...
रात का खाना खाकर पतिदेव सोने चले गए. उन्हें सुबह बाहर जाना था. मृदुला भी किचन का काम निपटा, बेटियों को दूध देने उनके कमरे की ओर बढ़ी तो उनके शब्द कान में पड़ते ही, वह सशंकित ठिठक गई...
“दीदी लव लैटर्स भी तो हो सकतें हैं.”
छोटी बेटी का स्वर सुन वो सन्न रह गई. उसकी बेटियाँ ऐसा कुछ भी कर सकतीं हैं, मृदुला ने सोचा भी ना था. पर अंदर की माँ व्यथित हो उठी थी. भीतर जाऊँ, ना जाऊँ वाली स्थिति में खड़ी ही थी, कि बड़ी बेटी का स्वर सुनाई दिया...
“इडियट! तू मम्मा के बारें में ऐसा सोच भी कैसे सकती है?”
‘ओह... तो मेरे बारे में बात कर रही हैं,’ एक चैन की साँस आई... और फिर अटक गई. ‘मेरे बारे में ये सब सोचतीं हैं दोनों?!’
रात अधिक हो चुकी थी, सो मृदुला ने बेटियों पर ज़ाहिर भी ना किया कि उसने कुछ सुना भी है. पर मन ही मन तय कर लिया था कि अब अपने उस अतीत से अपनी बेटियों को भी अवश्य परिचित करवाएगी जो उन के मन में अपनी माँ के लिए ना जाने कैसे कैसे विचार ला रहा था
अगले दिन रविवार था सो बेटियाँ देर से जगी तब तक पिता भी जा जुके थे.
“नाश्ता मेज पर लगा दिया है, झट-पट करो और मेरे कमरे में आ जाओ. आज तुम लोगों को कुछ दिखाना है.” मृदुला ने बेटियों को कहा और अपने कमरें में चली गई...पीछे पीछे दोनों बेटियाँ भी पहुँच गईं. देखने की चाह में नाश्ता किसको याद था?
“मम्मा, क्या दिखा रही हो आप? शॉपिंग की है क्या?” छोटी ने फुदकते हुए माँ से पूछा. पर माँ का गंभीर चेहरा देख अगले ही पल चुप हो गई.
“शैली, मेरी अलमारी से वो बैग ले आओ,” मृदुला ने बड़ी बेटी से आदेशात्मक स्वर में कहा, तो वो थोड़ी सहम गई.
“नहीं, मम्मा रहने दीजिए ना... मत दिखाइए. आपका भी कुछ पर्सनल हो सकता है,” शैली की सहमी मुख मुद्रा देख मृदुला मुस्कुरा उठी.
“नहीं बेटा, मेरी लाइफ में कुछ भी ऐसा नहीं जो मैं तुम दोनों से छुपाऊँ. इंफैक्ट, अब तो तुम मेरी दोस्त हो, तो अपने सारे राज़ तुम दोनों से शेअर करने वक्त आ गया है,” बोलते हुए मृदला जैसे किसी और ही दुनिया में चली गई थी. अगले पल स्वयं को वापस लाते हुए, खुद ही उठ कर वो बैग उठा लाई और पलंग पर बैठ गई. सामने ही दोनों बेटियाँ भी बैठ गई थीं. “जानती हो इस बैग में मेरी यादें कैद हैं.”
पीले रंग का पुराना शॉपिंग-बैग, जिसके भीतर हाथ डालकर एक एक सामान निकाल पलंग पर रखती जा रही थी मृदुला...
“ये देखो ये शैली का पहला झबला, जो तुम्हारी बुआ ने से सिला था... मैंने आज तक सम्भाल कर रखा है,” मृदुला ने बसन्ती रंग का छोटा सा वस्त्र निकाल कर बेटियों की ओर बढ़ाया, तो दोनों चहक उठीं.
“ये दीदी का है?” शिल्पी ने चौंक कर पूछा.
“हाँ बेटा ये इसका पहला कपड़ा है,” मृदुला ने स्नेह से बताया.
“और मेरा?” शिल्पी ने उत्सुकुता से पूछा, तो एक छोटा सा गुलाबी रंग का कुर्ता उसकी ओर बढ़ा दिया.
“ये आपने बनाया माँ?” शिल्पी की नज़र अपने कुर्ते से हट ही नहीं रही थी.
“नहीं, ये नानी ने बनाकर भेजा था तेरे जन्म से पहले,” मृदुला ने बताया.
“कितना क्यूट है ना, दी ?” दोनों देख कर देर तक खुश होती रहीं.
फिर मृदुला ने बैग में हाथ डाल कर एक नीले रंग की डायरी निकाली.
“मैं कवितायेँ लिखती थी... अपनी कॉपी के पिछले पेज और किताबों के कवर पर लिख देती थी. नवीं कक्षा में थी, तब मेरे बाबू जी ने दी थी ये डायरी मुझे. और साथ ही इधर-उधर ना लिखने का वादा लिया भी लिया था मुझसे. बड़े शौक से बुला कर मुझसे सुना करते थे मेरी कवितायेँ,” बोलते-बोलते जैसे डायरी नहीं अतीत दहलीज़ ही छू ली थी मृदुला ने.
डायरी मृदुला के हाथ से बेटियों के हाथ में पहुँच चुकी थी. “वाह मम्मा! आप पोइम लिखतीं थी.”
मृदुला मुस्कुराती रही. अब बारी अगले सामान की थी... एक छोटा सा प्लास्टिक का डिब्बा, जिसमें रंग बिरंगे मोती मनके, नग, कुछ कान मे पहननें के मोती, कुछ नाक की कील. सब सामान पलंग पर सज गया था.
“मम्मा, आप नोज़-पिन भी पहनती थी? पर आपकी नोज़ में होल कहाँ है?” शिल्पी उत्सुकुता से पुराने गहने देख रही थी.
“पहले था, बेटा, फिर नोज़-पिन पहनना छोड़ दिया तो बंद हो गया,” मृदुला के चेहरे पर एक दर्द की लकीर सी खिंची और छुप गई, “माँ को बहुत पसंद थी मेरे ऊपर नाक की कील, पर मैं गुमा देती थी... माँ कभी खाली नाक रहने ही ना देती, तुरंत दूसरी ले आती थी बाज़ार से. एक बार तो मुझे सर्दी हो गई थी, माँ मुझे डॉक्टर के पास ले गई थी. वहाँ डॉक्टर के यहाँ, नाक साफ करते वक्त कहाँ सरक गई पता ही नहीं चला! जैसे ही माँ की नज़र मेरे चेहरे पर पड़ी, उन्होंने पहले तो बहुत तलाशी और जब नहीं मिली तो अपनी नाक से निकाल कर पहना दी थी. फिर घर आते वक्त रास्ते से नई खरीद कर ही वापस आए. हमेशा कहती थीं, मेरा बिना कील का चेहरा उन्हें अच्छा नहीं लगता,” वो फिर से मुस्कुराने लगी थी.
फिर बैग से कुछ अधूरे काढ़े हुए रुमाल, धागे, सुइयां और मेजपोश निकाल कर रख दिए मृदुला ने. बेटियाँ फिर चौंक उठीं, “आपको कढ़ाई भी आती है? अरे वाह मम्मा, आपने कभी बताया ही नहीं!”
“हाँ, बारहवीं कक्षा में स्कूल में सीखी थी. तभी ये रुमाल काढ़े थे. घर के सब सदस्यों के नाम के रुमाल बनाये थे मैंने,” मृदुला की आँखों मे मासूम बच्चे की सी चमक थी.
इस बार बैग में हाथ डाला, तो दोनों बेटियाँ टकटकी बांधे अगले सामान की प्रतीक्षा कर रहीं थीं. इस बार हाथ में आया खतों का मोटा सा पुलन्दा.
“ये वो खत हैं जो मेरी शादी के बाद से, तुम दोनों के जन्म तक माँ ने मुझे लिखे. तुम दोनों के जन्म के बाद उन्होंने कोई खत नहीं लिखा, ये कह कर कि अब मैं इस घर में अकेली नहीं रही.”
“अरे! फिर नानी ने आपको कभी लैटर नहीं लिखा, मम्मा?” शैली ने माँ की आँखों झांकते हुए, अचम्भित हो पूछा.
“मैं तुम दोनों में इतनी व्यस्त हो गई थी कि उनके लैटर का कई-कई दिन तक जवाब नहीं दे पाती थी. फिर घर में फोन भी लग गया था ना.”
“ये क्या है, मम्मा?” शिल्पी ने एक फ्रेम में फसा, अधबना कढ़ाई का बूटा उठाया, तो मृदुला की आखें छलक उठीं.
“ये माँ के लिए गिफ्ट बना रही थी मैं. उन्हें गुलाब बहुत पसंद थे... अचानक एक पत्रिका का पेज उठाकर मुझसे कहा, ‘तुझे तो कढ़ाई आती है ना, ये मेरे लिए बनाना’. तब मेरी पढ़ाई थी, तो उन्होंने ज्यादा ज़ोर ना डाला और मैंने भी ध्यान नहीं दिया. पर जब शादी में मेरे सामान के साथ वो नमूना भी निकला, तब मैंने सोचा था कि माँ के लिए ये जरुर बनाउंगी. पर पहले समय नहीं मिला... जब समय मिला, तो माँ नहीं थीं... ये अधूरा ही रह गया...” बात खत्म करते-करते, मृदुला फूट-फूट कर रो पड़ी. बेटियों के चेहरे भी उदास थे उनको लग रहा था बेकार ही माँ की यादों को छेड़ उनको दुखी कर दिया. स्वयं को संयत कर, मृदुला ने फिर कहना शुरू किया, “मेरे अतीत में कुछ भी ऐसा नहीं था, बेटा, जो तुमसे छुपाना हो. बस ये कुछ यादें हैं जो आज भी मुझे अपने माँ-बाबूजी से दूर नहीं होने देतीं. जब उनकी याद आती है, मैं ये ही यादों का झरोखा खोल लेती हूँ और अपना बचपन फिर से जी लेती हूँ... जब तुम मेरी उम्र में जाओगी, तो तुम्हारी भी अपनी-अपनी दुनिया होगी. तब तुम इन सब बातों को अच्छे से जान पाओगी.”
मृदुला धीरे-धीरे सारा सामान समेटकर वापस रखने लगी. तभी, शैली ने हाथ बढ़ा कर अधूरा काढ़ा हुआ गुलाब का बूटा खींच लिया. मृदुला ने चौंक कर पूछा, “इसका क्या करेगी?”
“माँ का गिफ्ट है, इसको तो पूरा करना होगा ना...” शैली ने मुस्कुराते हुए कहा.
“और जैसे तुमको तो बड़ी कढ़ाई आती है?” मृदुला ने माहौल हल्का करने के उद्देश्य से, उसे छेड़ते हुए कहा.
“तो आप किस लिए हो? मुझे सिखाओगी ना?”
“श्योर, ऑफकोर्स यस बेटा!” और प्यार से अपनी दोनों बेटियों को गले लगा लिया.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 973

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Seema Singh on March 26, 2016 at 11:24am
आभार नीरज दीदी।
Comment by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on March 22, 2016 at 10:52am

वाह, बहुत सुन्दर कहानी। हर स्त्री की कहानी। सबके पास ऐसी मधुर यादें होती हैं जो तनहाई की भी साथी होती हैं। दिल को छू गई कहानी । हार्दिक बधाई सीमा जी।

Comment by Seema Singh on March 9, 2016 at 10:49am
बहुत बहुत शुक्रिया नीता जी। आपको कहानी पसंद आई ह्रदय से आभार।
Comment by Nita Kasar on March 2, 2016 at 12:24pm
मन के भीतर गहराई तक उतर गई कथा। बेटियाँ क्या अनुमान लगा रही थी।पर माँ ने अतीत के मधुर पलों को कितने सलीक़े से संभाल रखा है।दोनों की जी हल्का हो गया होगा ।बधाई आपको दिल से सीमा सिंह जी ।
Comment by Seema Singh on March 1, 2016 at 12:32pm
बहुत बहुत धन्यवाद राहिला जी, आपकी तो कथा पर उपस्थिति ही मन उल्लासित कर देती है। आपकी प्रशंसा बहुत ख़ुशी देती है राज़ की बात बताऊँ मैं तो खुद आपकी फैन हूँ। अब आप सोचिए आपका कथा पर आना ही मेरे लिए कितनी बड़ी बात है।
Comment by Seema Singh on March 1, 2016 at 12:27pm
आभार आ० मनोज जी आपको कथा पसन्द आई ये लेखिका का मान हुआ और कथा के भाव ने आपके मन को छू लिया समस्त नारी जाति का सम्मान हुआ। ह्रदय से धन्यवाद आपका।
Comment by Rahila on March 1, 2016 at 7:55am
बहुत ही प्यारी और भावपूर्ण प्रस्तुति आदरणीया सीमा दी! आपकी कहानी की हर लाइन के साथ आंखो के आगे चलचित्र सा प्रतीत हुआ । हार्दिक बधाई आपको ।सादर
Comment by मनोज अहसास on February 29, 2016 at 4:24pm
आदरणीय सीमा जी
इस बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाली कथा पर मैं आपको दिल से शुभकामना
बधाई देता हूँ
बहुत सी यादें हर आदमी के जीवन मे होती है
पर इस कहानी में बहुत ही बढ़िया ढंग से माँ बेटी की निकटता को दर्शाया गया है
सादर प्रणाम

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी रिश्तों पर आधारित आपकी दोहावली बहुत सुंदर और सार्थक बन पड़ी है ।हार्दिक बधाई…"
21 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"तू ही वो वज़ह है (लघुकथा): "हैलो, अस्सलामुअलैकुम। ई़द मुबारक़। कैसी रही ई़द?" बड़े ने…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"गोष्ठी का आग़ाज़ बेहतरीन मार्मिक लघुकथा से करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"आपका हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। बहुत सुंदर लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।"
Monday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"ध्वनि लोग उसे  पूजते।चढ़ावे लाते।वह बस आशीष देता।चढ़ावे स्पर्श कर  इशारे करता।जींस,असबाब…"
Sunday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"स्वागतम"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-177
"आ. रिचा जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-177
"आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-177
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-177
"आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-177
"आ. भाई अमित जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service