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कैनवास ...

मुझे बहुत खुशी हुई थी
जब हर शख़्श
तुम्हें सलाम कर रहा था
तुम्हारे हर रंग की कद्र हो रही थी
तुम वाहवाही के नशे में गुम थे //


भीड़ में तन्हा
मैं तुम्हारे चहरे को निहार रही थी

इतने चहरे लिए
न जाने लोग कैसे जी लेते हैं
खुद को ज़िंदा रखने के लिए
न जाने
कितनों की खुशियाँ पी लेते हैं //


तुम कैसे पुरुष हो
औरत चाहते हो पर
उसे समझ नहीं पाते
उसके अहसासों से खिलवाड़ करते हो
न जाने कौन से चहरे से
उसके ख्वाब को फरेब देते हो
वो पानी की तरह साफ़ होती है
हर शीशे के साथ होती है
उसके हर पल में तुम जीते हो
वो तुम्हारे पल के लिए मर जाती है
तुम हर पल जीत जाते हो
वो हर पल हार जाती है//

आज दुनियावी नज़रों में
मैं एक महान कलाकार की प्रेरणा हूँ
वो प्रेरणा जिसे तुमने कभी
नज़र भर के भी नहीं देखा
बस रहा तो जिस्म भर का साथ रहा
रात भी स्याह रही
सहर भी ख़फा रही
मुझे चाहे तुमने कभी
इतनी शिद्दत से नहीं चाहा
जितनी शिद्दत से तुमने मुझे
अपनी तूलिका से
कैनवास पर जीवन दिया //


आज ये कैनवास बिक जाएगा
और इसके साथ ही बिक जाएगी
कैनवास पर तुम्हारी तूलिका से
नारी की अन्तर्दुविधा को प्रतिबिंबित करती
तुम्हारी ये प्रेरणा भी//

कल फिर तुम
एक नए चहरे के साथ आओगे
अपना पुरुषार्थ दिखाओगे
मैं बेबस हो जाऊँगी
फिर तूलिका से छली जाऊँगी
एक नयी प्रेरणा बन कर 

मैं कैनवास के मौन बिम्ब को जीती
फिर बिक जाऊँगी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on March 14, 2016 at 1:05pm

आदरणीय   narendrasinh chauhan    जी रचना को अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का हार्दिक अाभार। 

Comment by narendrasinh chauhan on March 14, 2016 at 10:05am

खूब सुन्दर रचना

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