संग तुम्हारे नाम के ......
इस लम्हा
जब शून्यता ने
मुझे अंगीकार कर लिया है //
मेरे ख्वाब
सूखे शज़र के ज़र्द पत्तों से
बिखर गए हैं
कम से कम
मुझ पर इतना तो रहम कर दो
तुम अपनी याद का
इक चराग तो जलने दो//
इस लम्हा
जब मेरा वज़ूद
ख़ाक में मिलने से पहले
अंतिम साँसों से
जीने की जिद्दो ज़हद में उलझा है
अपने अस्तित्व की याद को
मेरे ज़हन में जी लेने दो//
इस लम्हा जब
मेरी तमाम हसरतें
इस जिस्म के साथ
अलविदा कहने को
आतुर हैं
तुम अपनी मौजूदगी के
तमाम अहसास
अपने साथ ले जाओ
और मुझे इस जहां से
चैन से जाने की वज़ह दे जाओ//
आखिर कब तलक
इस लम्हे को मैं
बांधे रखूंगी
तुम क्यों नहीं समझते
साथ मेरे
ये लम्हा भी डूब जाएगा
बस इस लम्हा
मेरी एक इल्तिज़ा मान लो
इन बेजान सी आँखों का
इंतज़ार जान लो
खाके सुपुर्द होने से पहले
मैं अपने नाम को
तुम्हारे लबों पे सुलाना चाहती हूँ
और संग तुम्हारे नाम के
ख़ाक में सो जाना चाहती हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. डॉ. गोपाल जी भाई साहिब जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आ० ऐसी सैड कविता क्यों ? माना की द्रवित करती है पर पाठक को हम क्योंदुखी करें . सुन्दर रचना एकबार फिर .
आदरणीया राहिला जी प्रस्तुति में निहित भावों को मान देने का हार्दिक आभार।
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