१२२/१२२/१२२/१२
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कोई राज़ मुझ पर खुला देर से,
वो आँसू वहीँ था,, बहा देर से.
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चिता की हुई राख़ ठंडी मगर,
सुलगता हुआ दिल बुझा देर से.
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मैं दुनिया से लड़ने को तैयार था,
मगर ..ख़त तुम्हारा मिला देर से.
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तेरा नाम धडकन पे गुदवा लिया,
ये ताबीज़ मुझ को फला देर से.
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हमारी सिफ़ारिश फ़रिश्तों ने की,
मगर आसमां ही झुका देर से.
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अजब सी नमी लिपटी हर्फ़ों से थी,
वो ख़त तो जला पर जला देर से.
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कई खेत प्यासे तड़पते रहे,
मिला बादलों को पता देर से.
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भँवर, कश्तियाँ लीलता ही गया,
मगर वाँ भी पहुँचा.. ख़ुदा देर से.
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तू इंसान बेशक़ है आलातरीन,
तू पहचाना लेकिन गया देर से.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
जनाब नीलेश नूर साहिब , अच्छी ग़ज़ल कही है आपने ,मुबारकबाद शेर दर शेर क़ुबूल फरमाएं। ....... शेर नंबर 4 के सानी मिसरे में एक शब्द इस्तेमाल हुआ है ,वह तावीज़ है ताबीज़ नहीं ,देख लीजिएगा
चिता की हुई राख़ ठंडी मगर,
सुलगता हुआ दिल बुझा देर से.
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मैं दुनिया से लड़ने को तैयार था,
मगर ..ख़त तुम्हारा मिला देर से. ---बहुत मर्मस्पर्शी शेर हुए
पूरी ग़ज़ल ही दिल छू लेने वाली हुई नीलेश भैय्या जितनी दाद दो कम ही होगी
खूब सूरत ग़ज़ल के लिए बधाई कुबूल करे
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