अनाम ख़त
चेरी के फूल जैसे
मुरझाये हुए शब्दों को
जब छु जायेंगी तुम्हारी नफ्स
तो शायद,यह फिर से सब्ज़ हो खिलें
और हाँ, इनके पीछे
छुपे हुए अर्थों की खुश्बू
उड़ने लगे तुम्हारे कमरे में
सावन के बादलों-सी बेचैनी
मंडराएगी सिने पे कहीं
और जब तुम्हारी आँखों से बरसेगी झड़ी
होंठ पे उगती इक नन्ही मुस्कान
यूँ ही दब जायेगी दर्द के ओलों से
तब यह मुर्दे शब्द और भी सजीव लगेंगी
तो क्या लिखूं ऐसा
की बात तुम तक पहुंचे ?
लिखूं कि जो अशोक का पेड़ तूम लगा गई थी
वो अब इतना बड़ा हो गया है कि
अब मुझसे तुम्हारा पता माँगता है
पूछता है कि कब लौट आओगी तुम ?
जहाँ हम अक्सर मिला करते थे
वो पंजाबी ढाबा अब टूटकर
एक बहुत बड़ा मॉल बन चूका है
पर अभी भी है उसी नुक्कड़ पे
पनवाड़ी की छोटी-सी दूकान
जिसका मालिक हमेशा मुस्कुराता रहता है
सुनता हूँ आजकल तबियत खुश नहीं है उसकी
रेहड़ीवाली चाय की दुकान
अब नहीं लगती मंगल बाज़ार में
फिर भी रौनक बरक़रार है लोगों के चेहरों पे
क्योंकि खुल चूका है यहाँ
अंग्रेजी शराब की दुकान
पर मेरे जेहन में इक डर रहता है हमेशा
की इसी बहाने कभी तुम
मुझसे मेरी तन्हाई का हिसाब माँग बैठो
लिखूं की माला बेचनेवाली वो देहाती लड़की का
पिछले महीने बलात्कार हो गया
पुलिस अब तक पकड़ नहीं पाई है मुजरिमों को
अब ऐसे शहर में जीने और मरने की परिभाषा
क्या हो सकती है ?
मोहल्ले में अख़बार डालनेवाला लड़का
कल शाम गुजर गया सड़क हादसे में
और लापता है ट्रक ड्राईवर
कुछ भी हो सकता है
कहीं भी, कभी भी
मकान मालिक का इकलौटा बेटा
जिसकी शादी हाल ही में हुई है
छोड़ आया है वो घर के भगवान् को
महानगर के किसी वृद्धाश्रम में
जहाँ मिले थे हम पहली बार
वो मंदिर का एक हिस्सा टूट चूका है
जैसे मैं टुटा हुआ हूँ तुम्हारे बिना
टूट चुके है लोग इस तरह की
अब एक दीवार दुसरे दीवार में कान नहीं देता
पता नहीं, क्या लिखूं ?
आँखों देखा हाल लिखूं
या फिर कोरी कल्पना ?
कौन जानता है इस शहर में
किसका कैसे टुटा है सपना ?
मैं जो लिख रहा हूँ
क्या तुम पढ़ सकोगी ?
केवल ऊपर उखड़े शब्द ही पढ़ पाओगी तुम
क्योंकि, अन्दर छुपे हुए शब्द
आँखों से नहीं पढे जाते !
राजकुमार श्रेष्ठ
मौलिक व अप्रकाशित रचना
Comment
मिथिलेश भैया की बातों से सहमत हूँ वर्तनी दोष रचना की ख़ूबसूरती बिगाड़ रहे हैं | वैसे इस सुन्दर प्रस्तुति पर बधाई तो बनती ही है आ० राजकुमार जी |
आदरणीय राजकुमार जी, आपकी किसी पहली प्रस्तुति से गुजर रहा हूँ. प्रस्तुति में वर्तनी और व्याकरण दोष ने इसके सौन्दर्य को प्रभावित किया है. ऐसा है या नहीं?
चेरी के फूल जैसे
मुरझाये हुए शब्दों को
जब छु जायेंगी तुम्हारी नफ्स
तो शायद,यह फिर से सब्ज़ हो, खिलें
और हाँ, इनके पीछे
छुपे हुए अर्थों की खुश्बू
उड़ने लगे तुम्हारे कमरे में
सावन के बादलों-सी बेचैनी
मंडराएगी सिने पे कहीं
और जब तुम्हारी आँखों से बरसेगी झड़ी
होंठ पे उगती इक नन्ही मुस्कान
यूँ ही दब जायेगी दर्द के ओलों से
तब यह मुर्दे शब्द और भी सजीव लगेंगी
तो क्या लिखूं ऐसा
की बात तुम तक पहुंचे ?
लिखूं कि जो अशोक का पेड़ तूम लगा गई थी
वो अब इतना बड़ा हो गया है कि
अब मुझसे तुम्हारा पता माँगता है
पूछता है कि कब लौट आओगी तुम ?
जहाँ हम अक्सर मिला करते थे
वो पंजाबी ढाबा अब टूटकर
एक बहुत बड़ा मॉल बन चूका है
पर अभी भी है उसी नुक्कड़ पे
पनवाड़ी की छोटी-सी दूकान
जिसका मालिक हमेशा मुस्कुराता रहता है
सुनता हूँ आजकल तबियत खुश नहीं है उसकी
रेहड़ीवाली चाय की दुकान
अब नहीं लगती मंगल बाज़ार में
फिर भी रौनक बरक़रार है लोगों के चेहरों पे
क्योंकि खुल चूका है यहाँ
अंग्रेजी शराब की दुकान
पर मेरे जेहन में इक डर रहता है हमेशा
की इसी बहाने कभी तुम
मुझसे मेरी तन्हाई का हिसाब माँग बैठो
लिखूं की माला बेचनेवाली वो देहाती लड़की का
पिछले महीने बलात्कार हो गया
पुलिस अब तक पकड़ नहीं पाई है मुजरिमों को
अब ऐसे शहर में जीने और मरने की परिभाषा
क्या हो सकती है ?
मोहल्ले में अख़बार डालनेवाला लड़का
कल शाम गुजर गया सड़क हादसे में
और लापता है ट्रक ड्राईवर
कुछ भी हो सकता है
कहीं भी, कभी भी
मकान मालिक का इकलौटा बेटा
जिसकी शादी हाल ही में हुई है
छोड़ आया है वो घर के भगवान् को
महानगर के किसी वृद्धाश्रम में
जहाँ मिले थे हम पहली बार
वो मंदिर का एक हिस्सा टूट चूका है
जैसे मैं टुटा हुआ हूँ तुम्हारे बिना
टूट चुके है लोग इस तरह की
अब एक दीवार दुसरे दीवार में कान नहीं देता
पता नहीं, क्या लिखूं ?
आँखों देखा हाल लिखूं
या फिर कोरी कल्पना ?
कौन जानता है इस शहर में
किसका कैसे टुटा है सपना ?
मैं जो लिख रहा हूँ
क्या तुम पढ़ सकोगी ?
केवल ऊपर उखड़े शब्द ही पढ़ पाओगी तुम
क्योंकि, अन्दर छुपे हुए शब्द
आँखों से नहीं पढे जाते !
| इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई सादर | 
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