१२२२/१२२२/१२२
ख़ुदाया आज फिर धडकन थमी है,
किसी की याद दिल में चुभ रही है.
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मसीहा को मसीहाई चढ़ी है,
मसीहा को हमारी क्या पड़ी है.
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कहीं पर अश्क मिट्टी हो रहे हैं
कहीं प्यासी तड़पती ज़िन्दगी है.
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कई जुगनू चमक उट्ठे हैं
लेकिन कमी सूरज की रातों में खली है.
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मेरी नज़रें जमी हैं आसमां पर,
न जानें क्यूँ वहाँ भी ख़लबली है.
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रगड़ता है हर इक साहिल पे माथा,
समुन्दर की ये कैसी बे-बसी है.
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गुनाहों में गिनीं जाएगी चुप्पी,
ये सच का साथ देने की घड़ी है.
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ठिकाना ‘नूर’ का कब है ये दुनिया,
है उसका घर जहाँ पर रौशनी है.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. रामबली गुप्ता जी
शुक्रिया आ. मिथिलेश जी
शुक्रिया आ. नादिर खान साहेब
शुक्रिया आ. अनुज जी ..
..आप को शेर पसंद आया, इसके लिए आभार
आदरणीय निलेश जी, हमेशा की तरह शानदार ग़ज़ल. वाह वाह वाह. आसान लफ़्ज़ों में कथ्य जो अर्थविस्तार पा रहे हैं वह अद्भुत है. इस शानदार ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई.
वाह आदरणीय नीलेश जी खूब कहा हमेशा की तरह
रगड़ता है हर इक साहिल पे माथा,
समुन्दर की ये कैसी बे-बसी है. ऐसा भी होता है, समय क्या क्या न करवाए (कुछ तो कमज़ोरी रही होगी )...
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गुनाहों में गिनीं जाएगी चुप्पी,
ये सच का साथ देने की घड़ी है. बहुत बेबाकी से बड़ी बात, आसान लफ़्ज़ों में कह गए सर जी
कई जुगनू चमक उट्ठे हैं
लेकिन कमी सूरज की रातों में खली है. enter लेकिन के बाद दबना था एडिट तो आप कर ही लेंगे
सादर....
गुनाहों में गिनीं जाएगी चुप्पी,
ये सच का साथ देने की घड़ी है.
ये वो शेर है जो आज के वक्त की जरूरत है.
ये वो शेर है जो दुष्यंत की परम्परा को आगे ले जाता है.
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