गुमशुदा हूँ मैं
तलाश जारी है
अनवरत 'स्व ' की
अपना ‘वजूद’
है क्या ?
आये खेले ..
कोई घर घरौंदा बनाए..
लात मार दें हम उनके
वे हमारे घरों को....
रिश्ते नाते उल्का से लुप्त
विनाश ईर्ष्या विध्वंस बस
'मैं ' ने जकड़ रखा है मुझे
झुकने नहीं देता रावण सा
एक 'ओंकार' सच सुन्दर
मैं ही हूँ - लगता है
और सब अनुयायी
'चिराग' से डर लगता है
अंधकार समाहित है
मन में ! तन - मन दुर्बल है
आत्मविश्वास ठहरता नहीं
कायर बना दिया है ....
सच को अब सच कहा नहीं जाता
चापलूसी चाटुकारिता शॉर्टकट
ज़िन्दगी की आपाधापी की दौड़ में
नए आयाम हैं , पहचान हैं
मछली की आँख तो दिखती नहीं
दिखती बस है मंजिल...
परिणाम - शिखर
शून्य में ढ़केल देता है फिर ..
शून्य - उधेड़बुन चिंता - चिता
‘एकाकीपन’ तमगा मिल जाता है
गले में लटकाए निकल लेता हूँ
अपना ‘वजूद’ खोजने
शायद अब जाग जाऊं
‘गुमशुदा’ हूँ मैं
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"मौलिक व अप्रकाशित"
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
कुल्लू हिमांचल प्रदेश
६/५/२०१६
१०:५० - ११;१५ पूर्वाह्न
Comment
आदरणीय रामबली जी स्वागत है आप का ..रचना आप के मन को छू सकी अच्छा लगा आभार
जय श्री राधे
भ्रमर ५
आदरणीय भ्रमर जी बढ़िया भावाभिव्यक्ति है किन्तु समानार्थी शब्दों का एक ही पंक्ति प्रयोग कथ्य को शाब्दिक किये जाने के क्रम को अनावश्यक विस्तार दे रहा है यथा -
//गुमशुदा हूँ मैं
तलाश जारी है
अनवरत 'स्व ' को खोजने का
अपना ‘वजूद’ अस्तित्व
है क्या ? //
यहाँ तलाश और खोजने का प्रयोग हो या वजूद और अस्तित्व का.
//गुमशुदा हूँ मैं
तलाश जारी है
अनवरत 'स्व ' की
अपना ‘वजूद’
है क्या ? //
सादर
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