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यौवन भर देखी है हमने कैसी कैसी छाँव घनी
कहने से भी मन डरता अब मिलती थोड़ी छाँव घनी।1
धूप अगर होती राहों में तो साया भी मिल जाता
लेकिन अपने पथ में यारो मंजिल तक थी छाँव घनी।2
हमको तो आदत सहने की सर्दी गर्मी बरखा सब
दुख की धूप हमें दे रक्खो सुख की सारी छाँव घनी।3
छाया अच्छी तो है लेकिन बढ़ने से जीवन जो रोके
कड़ी धूप से भी बदतर है यारो ऐसी छाँव घनी।4
फसलों के संग जिनके सपने सूख रहे हैं रोज यहाँ
बदली उनको भी दे जाना अब की बारी छाँव घनी।5
कुछ पत्नी ने कुछ बच्चों ने कुछ यारो ने रख ली है
लिख देते हैं नाम तुम्हारे बाँकी जो भी छाँव घनी।6
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मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय
आदरणीय लक्षमण जी,
मीर के मीटर में एक खुबसूरत ग़ज़ल ! बहुत खूब !!
आदरणीय भाई रामबली जी , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार l
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