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सत्ता, धर्म और राजनीति (लघुकथा)

घर के मुख्य द्वार पर खाली प्लेट हाथ में लिए मालकिन को काम वाली बाई सन्नो ने आश्चर्य से देखते हुए पूछा:

"सब्ज़ी आज फिर सड़ गई थी क्या?"
"नहीं, पड़ोसी के घर से प्रसाद आया था, हम नहीं खाते उनके धर्म का प्रसाद, सो उस भूखे भिखारी को दे दिया"- मालकिन ने सन्नो से कहा।
सन्नो ने खिड़की से झांककर देखा कि वह भिखारी उसकी प्लेट में परोसा गया वह प्रसाद ज़ल्दी-ज़ल्दी खाने लगा था और कुछ निवाले पास खड़ी मरियल सी कुतिया के पास फेंकता जा रहा था।
"क्यों बाबा कौन से धर्म के हो तुम?" सन्नो ने भिखारी से पूछा।
"बाई, हमसे पूछ रही हो, या इस कुतिया से? हम दोनों का धर्म भूख ही है, अभी!" - भिखारी ने एक और निवाला कुतिया के सामने डालते हुए कहा और अपना हाथ चाटने लगा पेट की सत्ता अन्न की राजनीति से कुछ तो संतुष्ट हो रही थी।

[मौलिक व अप्रकाशित]

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 2, 2016 at 10:36am

बाई, हमसे पूछ रही हो, या इस कुतिया से? हम दोनों का धर्म भूख ही है .. या,  बाई, हमसे पूछ रही हो, या इस कुतिया से? हम दोनों का धर्म एक ही है, भूख ! 

लघुकथा अपनी उच्च अवस्था को इसी वाक्य पर छू लेती है. इसके बाद का सारा कुछ कहा हुआ रिडण्डेंट है, अनावश्यक-सा ही है, आदरणीय. वैसे, ये मेरे नितांत व्यक्तिगत विचार हैं, इस विधा-जानकार के मानक उद्गार नही.

एक अच्छी लघुकथा बुनने की कोशिश हुई है. हार्दिक शुभकामनाएँ 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 2, 2016 at 5:26am
अनुमोदन व प्रोत्साहन हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब समर कबीर साहब।
Comment by Samar kabeer on June 1, 2016 at 12:23pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब आदाब,बहुत ही शानदार तंज़ किया है आपने धर्म के नाम पर नफ़रत फेलाने वालों पर,बहुत ख़ूब वाह, इस शानदार लघुकथा के लिये ढेरों बधाई स्वीकार करें ।

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