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भूखी रचनाएँ और वेक अप कॉल (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

क़ुरैशी साहब की रचनाएँ संभाग से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं थीं, लेकिन दूसरे साथी लेखकों की प्रकाशित रचनाओं, संग्रहों और उनको मिलने वाले छोटे-बड़े सम्मानों से वे बहुत विचलित रहा करते थे। प्रकाशन की भूख उन्हें बहुत सताया करती थी, पर क्या करें न तो आर्थिक स्थिति अच्छी थी और न ही कोई सहारा। बहुत से सम्पादकों से मधुर संबंध होने के बावजूद जब कभी उनकी रचनाएँ अस्वीकृत हो जातीं, तो उनकी नींद हराम हो जाती थी। इस बार तो एक पत्रिका के संपादक को लम्बी सी शिक़ायती ई-मेल भेज दी। कोई उत्तर न मिलने पर आज सीधे सम्पादक महोदय से फोन पर सम्पर्क कर ही लिया। उनका लम्बा भाषण सुनने के बाद सम्पादक महोदय ने उनसे कहा:

"क़ुरैशी साहब, आपके द्वारा भेजी गई रचनाओं का हम या हमारा प्रकाशन क्या करता है या क्या करना चाहिए, उस पर प्रश्न चिन्ह लगाने से पहले कई बार अपनी रचनाओं को पढ़ा करें, सोचा करें,भाई!"
"आप सोचते हैं कि हम ऐसा नहीं करते क्या? आप दूसरों को तवज्जो देकर छापते ही जा रहे हैं, मेरी रचनाएँ उनसे कमतर हैं क्या?" क़ुरैशी साहब ने कुछ ऊँची आवाज़ में कहा।
"मुझे आपसे क्या और क्यों कर खुन्नस होगी?"
" तो फिर आपने मुझे पत्रिका के विशेषांक से किक आउट क्यों किया?"
"आश्वस्त रहें ये कतई किक आउट नहीं है, केवल वेक अप काल हैI एक रिजेक्शन से ये हाल है तो खुद की रचना को रिजेक्ट करने का हुनर कब सीखोगे, क़ुरैशी साहब?" सम्पादक महोदय ने विनम्रता से समझाते हुए कहा। 
अधिक छपने की भूख भूल गए क़ुरैशी साहब और अपनी अस्वीकृत भूखी रचनाओं को निहारने लगे।

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 2, 2016 at 1:39pm
कल रात हठात सूझी इस तात्कालिक सी रचना को इस मंच पर स्वीकृत कर अनुमोदन करने के लिए एडमिन महोदय को हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद। “भूखी रचना" व 'रचनाकार की भूख' पर सार्थक विचार विमर्श करते हुए मुझे स्नेहिल प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय श्री सौरभ पाण्डेय जी, आदरणीय श्री सुशील सरना जी, आदरणीया कान्ता राय जी, आदरणीय श्री सुनील वर्मा जी और आदरणीया राहिला जी। बहुत आभारी हूँ रचना पर समय देकर प्रोत्साहित करने के लिए। 'भूखी रचना' से मेरा आशय है ऐसी रचना जिसमें अभी कुछ कमियां/ख़ामियां रह गईं हैं और जो अपने रचाकार से बेहतर शिल्प,तथ्य या कथ्य की ख़ुराक चाह रही हैं लेकिन रचनाकार अनजान सा बनकर उन्हें ऐसी ही अवस्था में यहाँ-वहाँ प्रकाशित कराने के यत्नों में लगा हुआ है। सादर
Comment by Sushil Sarna on June 2, 2016 at 12:44pm

आदरणीय उस्मानी भाई आपने बहुत ही संवेदनशील विषय को मूर्त रूप दिया है। वर्तमान प्रतिष्ठा की भूख से बेचैन है। सोचने की बात है हम रचना को सम्मान दिलाना चाहते हैं या रचना की आड़ में अपनी प्रतिष्ठा की पिपासा को शांत करना चाहते हैं ? जब रचना का सृजन होता है तो रचनाकार अपनी शाब्दिक और भावनात्मक छैनी से रचना को मूर्त रूप देता है। यहां वो स्वयं गौण हो जाता है , रचना वो समाहित हो जाता है , रचना की हर प्रतिक्रिया परोक्ष रुप से रचनाकार से ही जुडी होती है। अब यदि हम अपनी प्रसिद्धि की पिपासा मिटाना चाहते हैं तो हम रचना सृजन के प्रति अपने सृजन धर्म का निर्वाह नहीं कर पाएंगे , उनमें हर शब्द में रचनाकार की पिपासा ही नज़र आएगी और सच में रचनाएं भूखी ही रह जाएंगी। आज का कर्म फल की इच्छा से लिप्त है। बहरहाल इस शानदार सृजन और अनछुए विषय की प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई स्वीकार करों।

इस सन्दर्भ में आदरणीय सौरभ सर की टिप्पणी काबिले ग़ौर है। हर रचनाकार के लिए ये टिप्पणी एक मील का पत्थर है। सदर ...

Comment by Rahila on June 2, 2016 at 12:43pm
बहुत अच्छी रचना आदरणीय उस्मानी जी!मुझे आपकी रचना बहुत पसंद आई । प्रकाशन की किसी को भूख तो किसी का सपना होता है । इस मामले में बहुत कम लोग सब्र वाले होते हैं । सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 2, 2016 at 11:08am

//रचना को भूख कभी नहीं लगती, भूख तो रचनाकार की होती है //

इस बात पर पुनः सोचिये, आदरणीय. ऐसी सोच अमूमन किसी रचनाकार को मात्र लिक्खाड़ बना देती हैं. रचनाओं को जिस दिन हम ज़िन्दा इकाई समझने लगे, लेखन के प्रति हमारा नज़रिया बदल जायेगा. सही तो ये है कि रचनाएँ ही रचनाकार को बनाती और प्रतिष्ठित करती हैं. इसे निजी तौरपर मैं बार-बार कहता भी रहता हूँ. इसी तौर पर, इस मंच पर ’रचनाकारों’ की नहीं रचनाओं की प्रतिष्ठा और सम्मान करने की परिपाटी है. जिसका एक रूप मंच पर प्रस्तुत हो रही हर रचना के साथ ’मौलिक और अप्रकाशित’ कह कर हुई घोषणा के लिए आग्रह है. वर्ना आपको विदित हो, इस मंच पर एक-से-एक रचनाकार, बहुत ’बड़े-बड़े’ (?) नामवाले, आये और अपनी पुरानी प्रतिष्ठित रचनाओं का पुनर्प्रकाशन चाहते रहे. अनुमति न मिलने पर नयी रचनाएँ उन्होंने प्रस्तुत कीं. उनपर सदस्यों द्वारा नीर-क्षीर करती टिप्पणियाँ हुईं. उनको बर्दाश्त नहीं हो पाया. उन्होंने कोई सार्थक मेहनत नहीं की. अलबत्ता तैश में आ गये. मंच को छोड़ दिया. उनकी रचनाएँ ’भूखी’ ही रह गयीं. वे बड़े ’रचनाकार’ अपनी उन रचनाओं को ’भूखा’ ही छोड़ दिया. क्योकि उन रचनाकारों के पेट पहले से ’भरे’ हुए थे.

Comment by kanta roy on June 2, 2016 at 10:57am
वाह!गजब की लेखनी उभर कर आई है आपकी यहाँ भी आदरणीय शहज़ाद जी । बहुत बहुत बधाई आपको ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 2, 2016 at 10:44am

:-))

इस दमदार कोशिश केलिए हृदयतल से बार-बार बधाई, आदरणीय. बहुत खूब ! आप एकदम-से उपरी तल्ले को पहुँचने वाली सीढ़ी पर पैर रखते दिख रहे हैं. आशा है, आपके पैर सधे रहेंगे. 
इस प्रस्तुति की अंतिम पंक्ति को मैं पंच-लाइन नहीं सत्य वचन कहूँगा. 
शुभ-शुभ

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