दिल-ऐ-बिस्मिल में ...
कुछ भी तो नहीं बदला
नसीम-ऐ-सहर
आज भी मेरे अहसासों को
कुरेद जाती है
मेरी पलकों पे
तेरी नमनाक नज़रों की
नमी छोड़ जाती है
कहाँ बदलता है कुछ
किसी के जाने से
बस दर्द मिलता है
गुजरे हुए लम्हात की मरकदों पे
यादों के चराग़ जलाने में
और लगता है वक्त
लम्हा लम्हा मिली
अनगिनित खराशों को
ज़िस्म-ऐ-ज़हन से मिटाने में
अपनी ज़फा से तुमने
वफ़ा के पैरहन को
तार तार कर दिया
आरज़ू के हर अब्र को
शर्मसार कर दिया
स्याह रात में
तारे तो आज भी टूटते हैं
मगर दिल में अब उनसे
किसी मन्नत की ख़्वाहिश नहीं उठती
अब शब-ऐ-हिज़्राँ
करवटों में गुजरती है
यादों के जज़ीरों पर
कोई आशना सी परछाईं
रक़्स करती है
चराग़-ऐ-शरर
तारीकियों से बात करती है
हर सू इक चुप सी
महसूस होती है
अब दिल-ऐ-बिस्मिल में भी
कोई शोर नहीं होता
हर अहद दम तोड़ देती है
सायों का जिस्मों पर जोर नहीं होता
उम्र गुज़र जाती है
किसी के करीब जाने में
मगर जाने वाले पे
किसी का जोर नहीं होता
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर आपका आदेश सर आँखों पे। मैं इस रचना को पुनः संशोधित कर अनुमोदनार्थ प्रेषित करता हूँ।
आदरणीय सुशील सरना जी, आप अपनी इस रचना मे स्वयं ही संशोधन कर, इसके पुनः अनुमोदित हो जाने की प्रतीक्षा करें
सादर
पाठक मित्रों से अनुरोध ...
कृपया आ. समर साहिब के सुझाव को अमल में लाते हुए अनुरोध है कि निम्न पंक्तियों को इस प्रकार पढ़ें :
ज़िस्म-ऐ-ज़हन से मिटाने में ... (जिस्म-ओ-ज़हन से मिटाने में )
अब शब-ऐ-हिज़्राँ ... (शब-ए-हिज़्राँ)
अब दिल-ऐ-बिस्मिल में भी ... (दिल-ए-बिस्मिल)
धन्यवाद
आदरणीय समर कबीर साहिब आदाब प्रस्तुति रुहानी तारीफ़ का दिल से शुक्रिया। आप का सुझाव सर माथे ... आपने बिलकुल सही फ़रमाया .... मैं अपनी मूल रचना में इस सुधार को समाहित कर लूँगा। आपकी सूक्ष्म दृष्टि और अमूल्य सुझाव का पुनः आभार।
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