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झाँक कर देखा दिलों में, सो रहे हैं सब।
एक जर्जर आत्मा ही ढ़ो, रहे हैं सब।।

कोठियों में लोग खुश हैं, भ्रम में ही था मैं।
किन्तु धन के वास्ते ही, रो रहे हैं सब।।

शीर्ष पर जो लोग लगता, पा गये सब कुछ।
जाके देखा पाया खुद को, खो रहे हैं सब।।

लग रहा था लोग मन्ज़िल, के सफर पर हैं।
हूँ चकित की दूर खुद से, हो रहे हैं सब।।

बंग्ले गाड़ी सुख के साधन, था गलत ये "मत"
आँधियाँ कह कर गयीं, दुख बो रहे हैं सब।।

मौलिक-अप्रकाशित

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Comment by rajesh kumari on June 9, 2016 at 7:47am

कोठियों में लोग खुश हैं, भ्रम में ही था मैं।
किन्तु धन के वास्ते ही, रो रहे हैं सब।।----वाह्ह्ह सच बयानी 

बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आ० पंकज  जी बधाई लीजिये 

Comment by Sushil Sarna on June 8, 2016 at 7:53pm

झाँक कर देखा दिलों में, सो रहे हैं सब।

एक जर्जर आत्मा ही ढ़ो, रहे हैं सब।।

कोठियों में लोग खुश हैं, भ्रम में ही था मैं।

किन्तु धन के वास्ते ही, रो रहे हैं सब।।

वाह आदरणीय पंकज जी वाह ... इस सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई। खूबसूरत अशआर खूबसूरत अंदाज़ ... क्या बात है।

Comment by Shyam Narain Verma on June 8, 2016 at 5:41pm
इस खूबसूरत रचना के लिये दिली दाद कुबूल करें
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 8, 2016 at 5:25pm
अंधानुकरण, स्वार्थ और भौतिकवादी आपाधापी के युग में तथाकथित सुखभोगियों की वस्तुस्थिति बयां करती सटीक ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बहुत बहुत मुबारकबाद मोहतरम जनाब पंकज कुमार मिश्र वात्सयायन जी।

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