2212 2212 2212 2212
भरने लगीं आँहें तड़फ के संगदिल तनहाइयाँ
ढलने चला सूरज अभी बढ़ने लगी परछाइयाँ
थीं कोशिशें की थाम लें उड़ता हुआ दामन तेरा
पर मुददतों से फासले पसरे हुये हैं दरमियाँ
ये कौन सा माहौल है ये वादियाँ हैं कौन सीं ?
हर ओर सन्नाटा ज़हन में चीखतीं खामोशियाँ
तुमभी परेशां हो बड़े दिल की खलाओं से अभी
छू कर तुझे आईं हवायें करती हैं सरगोशियाँ
क्यों चल रहा है आदमी अँधकार के साये तले
है ये खबर पगडंडियों पे कितनी गहरीं खाइयाँ ?
Comment
आपके स्नेह के लिए आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी नमन करता हूँ
रचना पटल पे आपके अमूल्य समय एवं मनोहारी शब्दों हार्दिक आभार आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी
आदरणीय बृजेश भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।
भाई ब्रिजेश जी ..उम्दा ग़ज़ल लिखी है मन में उठते बिचारों को ख़ूबसूरती से उकेरा है आपने इस रचना के माध्यम से ..इस रचना के लिए ह्रदय से बधाई स्वीकार करें ..सादर
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