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ग़ज़ल ....ढलने चला सूरज अभी बढ़ने लगी परछाइयाँ

​गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल ​

2212       2212       2212       2212

भरने लगीं आँहें तड़फ के संगदिल तनहाइयाँ 
ढलने चला सूरज अभी बढ़ने लगी परछाइयाँ 

थीं कोशिशें की थाम लें उड़ता हुआ दामन तेरा 
पर मुददतों से फासले पसरे हुये हैं दरमियाँ 

ये कौन सा माहौल है ये वादियाँ हैं कौन सीं ?
हर ओर सन्नाटा ज़हन में चीखतीं खामोशियाँ 

तुमभी परेशां हो बड़े दिल की खलाओं से अभी 
छू कर तुझे आईं हवायें करती हैं सरगोशियाँ 

क्यों चल रहा है आदमी अँधकार के साये तले 
है ये खबर पगडंडियों पे कितनी गहरीं खाइयाँ ?

(मौलिक एवं अप्रकाशित)​
​ ©बृजेश कुमार 'ब्रज'​

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 15, 2016 at 10:58pm

आपके स्नेह के लिए आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी नमन करता हूँ 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 15, 2016 at 10:56pm

रचना पटल पे आपके अमूल्य समय एवं मनोहारी शब्दों हार्दिक आभार आदरणीय  Dr Ashutosh Mishra जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 9:43am

आदरणीय बृजेश भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 14, 2016 at 11:08am

भाई ब्रिजेश जी ..उम्दा ग़ज़ल लिखी है मन में उठते बिचारों को ख़ूबसूरती से उकेरा है आपने इस रचना के माध्यम से ..इस रचना के लिए ह्रदय से बधाई स्वीकार करें ..सादर 

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