इस्लाह के लिए विशेषकर काफ़िए को लेकर मन में शंकायें हैं
2122 2122 2122 212
है ग़मों की इन्तहां अब आजमा लें दर्द को
बात पहले प्यार से फिर भी नहीं जो मानता
गेंद की तरहा हवा में फिर उछालें दर्द को
गर ग़मों की चाहतें हैं ज़िन्दगी भर साथ की
हमसफ़र अपना बना उर में छुपा लें दर्द को
नफरतों के राज में क्या रीत उल्टी चल पड़ी
दर्द खुद पे रो रहा चल आ संभालें दर्द को
गर खुदा मसरूफ है सुनता नहीं जो ये सदा
अश्क की स्याही से पन्नों पे सजा लें दर्द को
वक़्त के हैं हम सिकंदर अपना ये अंदाज़ है
नींद 'ब्रज' आये तो धरती पे बिछा लें दर्द को
©बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आपके आशीर्वाद से रचना सफल हुई आदरणीया rajesh kumari जी नमन करता हूँ
अच्छी ग़ज़ल कही है ब्रिजेश जी काफिया एकदम दुरस्त है बहुत बहुत मुबारक हो
गर ग़मों की चाहतें हैं ज़िन्दगी भर साथ की
हमसफ़र अपना बना उर में छुपा लें दर्द को
बहुत खूब |
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