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तुम्हारी जान ले लेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
चलो माना ये चुप रहने से हल होंगे कई मुददे
कि सारे राज खोलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
जो रखते हैं लगा के होंठ पे ताले रिवाजों के
जुबां से उनके बोलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
तमस की आँधियों ने बाग को बर्बाद कर डाला
नयन अपने भिंगोयेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
गरीबों का लहू पानी समझ ज़ालिम बहाते हो
लहू की होली खेलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
यूँ ही खामोश रहने की अगर पड़ जाये जो आदत
हमारा खून पी लेगी किसी भी रोज ये चुप्पी
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
©बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपकी सार्थक समीक्षा के लिए आपका ह्रदय से आभार....नमन करता हूँ
आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी
आपका हार्दिक अभिनंदन एवं आभार आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी....रदीफैन दोष था उसे सही किया है
आदरणीय Harash Mahajan जी रचना पटल पे आपके अमूल्य समय एवं
विस्तरत समीक्षा के लिए ह्रदय से अभारी हूँ....सुधार किया है
आदरणीय बृजेश भाई , अच्छी गज़ल हुई है , बहुत कठिन रदीफ को खूबसूरती से निभा गये आप । हार्दिक बधाई आपको ।
जुबां से उनके बोलेगी या - जुबां से उनकी बोलेगी
आ० बृजेश कुमार 'ब्रज' जी बहुत खूबसूरत इन्तखाब हुआ हैI चौथे और आखिरी शेअर में तक़ाबुल-ए-रदीफैन का दोष आ गया है, उसे देख लें I इस प्रस्तुति हेतु मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करें |
सादर !!
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