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तड़फते हैं सभी मंज़र कहीं से तुम चले आओ
खमोशी रात की औ दूर तक तन्हाई का आलम
रुके से जल में है कंकर कहीं से तुम चले आओ
क्षितिज के पार से किरणें सुहानी मुस्कुराईं यूँ
चुभे ज्यूँ रूह में खंजर कहीं से तुम चले आओ
मिटाने से नहीं मिटता ये रिश्ता आसमानी है
रहेगा जन्म जन्मान्तर कहीं से तुम चले आओ
अज़ब सी बेबसी हर सूं सफ़र भी कातिलाना है
नहीं है दूर तक रहबर कहीं से तुम चले आओ
घटायें करतीं अठखेली कि जैसे नार अलबेली
हवा का शोर भी सर सर कहीं से तुम चले आओ
बृजेश कुमार 'ब्रज'
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपकी सलाह और सुझाव अनुसार मतला परिवर्तित कर दिया है...आपके द्वारा की गई सुन्दर और सार्थक समीक्षा के लिए आपको नमन करता हूँ
ह्रदय तल से अभी आदरनीय सूबे सिंह सुजान जी
आदरणीय बृजेश भाई , ग़ज़ल अच्छी कही पर मतले मे काफिया बन्दी गलत हो गई है , जिसके कारण बाक़ी शे र खारिज हो रहे हैं ।
तड़फते हैं सभी मंज़र कहीं से तुम चले आओ
ज़मीं दिल की हुई बंजर कहीं से तुम चले आओ ---- मतले मे काफिया आपने अंजर तय कर लिया है , बाक़ी शे र मे केवल अर निभा दिया है । मतला बदलना ही पड़ेगा , नही तो गज़ल खारिज़ है ।
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