मायाजाल ...
ये मकड़ी भी
कितनी पागल है
बार बार गिरती है
मगर जाल बुनना
बंद नहीं करती
बहुत सुकून मिलता है उसे
अपने ही जाल के मोह में
स्वयं को उलझाए रखने में
वो स्वयं को
वासनाओं के जाल में
लिप्त रखना चाहती है
शायद वो जानती है
जिस दिन भी वो
अपना कर्म छोड़ देगी
वो अपनी पहचान खो देगी
पाकीज़गी उसे मोक्ष तक ले जाएगी
लेकिन इस तरह का मोक्ष
कभी उसकी पसंद नहीं होता
उसे तो अपनी वही दुनियां पसंद है
जिसे उसने अपनी
आपूरित वासनाओं की पूर्ती के लिए
जाल के रूप में सृजित किया है
इसीलिये वो बार बार गिर के भी
अपनी दुनिया को बुनती है
वो चाहती है कि ग़र
उसका आगाज़ ये मायाजाल है तो
अंत भी यही मायाजाल हो
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय सुशील सरना भाई , इंसानी प्रवृत्ति को मकड़ी के सापेक्ष रख कर बहुत सही बात कही आपने ! हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी प्रस्तुति के भावों पर आपकी मन मुदित करती प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीया प्रतिभा जी प्रस्तुति में समाहित गहन भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
उसे तो अपनी वही दुनियां पसंद है
जिसे उसने अपनी
आपूरित वासनाओं की पूर्ती के लिए
जाल के रूप में सृजित किया है
इसीलिये वो बार बार गिर के भी
अपनी दुनिया को बुनती है ....सांसारिक मायाजाल हम स्वयं बुनते हैं और अपनी इच्छा से उसमे फंसे रहना चाहते हैं ..इन भावों के साथ ये अनुपम सृजन है आपका आदरणीय हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको
आदरणीय kanta roy जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
बहुत सुकून मिलता है उसे
अपने ही जाल के मोह में
स्वयं को उलझाए रखने में ----अद्वितीय सम्प्रेष्ण है यहाँ मकड़ी के पागल होने के भावों में . बहुत-बहुत बधाई .
आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani जी प्रस्तुति के भावों पर आपकी मन मुदित करती प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय Rajendra kumar dubey जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय देने का हार्दिक आभार।
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