मात्रिक बहर
२२/२२/२२/२२/
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अपना ग़म ख़ुद ही से छुपा कर,
जब निकलो,, मुस्कान सजा कर.
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ग़ैरों से इतना न खुला कर,
दिल नौचेंगे ...मौका पा कर.
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नया तज़्रबा है हर धोका,
जश्न मनाओ बोतल ला कर.
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तुम समझे लोबान जला है,
मैं रक्साँ था ज़ख्म जला कर.
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मैंने ख़ुद को तर्क किया है,
तेरी मर्ज़ी हाँ कर...ना कर.
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शायद कोई राह छुपी हो,
देख ज़रा दीवार ढहा कर.
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यादों को हम याद आएं हैं,
लौट आयी हैं वापस, जा कर.
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घुटते-घुटते मर जायेगा,
अश्क अपनी आँखों से रिहा कर.
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जन्नत वन्नत खेल तमाशे,
देख चुका!! अल्लाह भला कर!!
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मौलिक / अप्रकाशित
निलेश "नूर"
Comment
शुक्रिया आ. डॉ साहब
आदरणीय नीलेश जी
शायद कोई राह छुपी हो,
देख ज़रा दीवार ढहा कर. ..
अपना ग़म ख़ुद ही से छुपा कर,
जब निकलो,, मुस्कान सजा कर.
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ग़ैरों से इतना न खुला कर,
दिल नौचेंगे ...मौका पा कर......पूरी ग़ज़ल ही जानदार है पर ये शेर मुझे बेहद पसंद आये इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ ..मेरी हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करें सादर
शुक्रिया आ. गिरिराज जी ...
नया तज़रबा है हर धोका में हर धोका एक नया अनुभव है ..ऐसा मंतव्य है ..हर धोका खा कर अनुभव मिलता है इसलिए जश्न मनाने की बात है ..आप के सुझाए ...धोखा है , हर नया तज़्रबा बेचारा हर नया तज़रबा ही धोका हो रहा है ....
सादर
शुक्रिआ आ. राजेश दीदी
शुक्रिया आ. कल्याण जी
शु. आ वर्मा जी
आदरणीय नीलेश भाई , बहुत खूबसूरत गज़ल कही है , सभी अशआर बढ़िया हुये हैं , दिल से बधाइयाँ आपको ।
नया तज़्रबा है हर धोका, इस मिसरे को ऐसा कहें तो बात और खुल कर आयेगी ऐसा मुझे लगता है --
धोखा है , हर नया तज़्रबा -- सोच लीजियेगा ।
शायद कोई राह छुपी हो,
देख ज़रा दीवार ढहा कर.
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यादों को हम याद आएं हैं,
लौट आयी हैं वापस, जा कर.
. वाह वाह हर शेर शानदार
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आ० नीलेश भैया दिल से दाद लीजिये
बहुत सुन्दर रचना के लिये आपको बधाई |
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