मेरा बीसवीं सदी का पुरातन स्नेह
यह इक्कीसवीं सदी के तुम्हारे
कभी न बदलने के वायदे
स्नेह की किरणों के पुल पर
एक संग उठते-गिरते-चलते
यह संवेदनशील हृदय कभी
तुम्हारा संबल बना था
चाँदनी-सलिल-सा तरल स्नेह
जीवन-यथार्थ का पिघला हुआ कुंदन ...
कहती थी
इसकी अमोल रत्न-सी आभा
थी तुम्हारी रातों में तेजोमय प्रेरणा
या असंतोष की धूप की छटपटाहटों में
ज्यों लहराई सनातन सत्यों की छाया
सोचता हूँ ...
चिंताग्रस्त, पर ओंठों पर मुसकान लिए
अभी भी आऊँ यदि द्वार तुम्हारे
लिए हाथों में रजनी-गंधा
या कोई लहराती नवीन पुष्पलता
खूबसूरत अजीब नई खुशियों में कल
बीते ’कल’ के टुकड़ों को पहचानोगी क्या?
कल्पनाशील हूँ मैं ...
क्रुद्ध और पाषाण और
अब बबूल-सा कंटीला हुआ
तुम्हारा यह इक्कीसवीं सदी का
दुखांत स्नेह
इस पर भी मेरा सहज भोला विश्वास ...
मेरी बीसवीं सदी की न मिटती मूर्खता
और सोचता हूँ ...
दम तोड़्ती साँसों में कैसी है यह
नित्य मार खाती-सी ज़िन्दगी
फफक-फफक ढुलते अश्रुजल
सीने में आँच भरी वेदना
पर तुम्हारे प्रति अभी भी है
हृदय-प्राण संवेदना
ज़िन्दगी तू अभी किवाड़ बंद न कर *
मुझको देना है मित्र को अभी
हृदय-दान
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-- विजय निकोर
मौलिक व अप्रकाशित रचना
* यह पंक्ति प्रिय अमृता प्रीतम जी की ज़मीन से है ...
सन १९६३ में यह शब्द दिल्ली में उनके घर उनके मुख से सुने थे
Comment
सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय भाई गिरिराज जी।
आपका हार्दिक आभार, आदरणीय indravidyavachaspatitiwari जी।
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , दिलकश हृदय दान के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय अशोक जी।
हृदय दान के लिए जो सहानुभूति चाहिए उससे पूरा न्याय किया गया है।
आदरणीय समर कबीर जी, सराहना के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय विजय निकोर साहब सादर प्रणाम, बहुत सुंदर दिल तक पहुँचती इस अभिव्यक्ति के लिए. हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर.
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