नारी मन .....
एक लंबे
अंतराल के पश्चात
तुम्हारा इस घर मेंं
पदार्पण हुअा है
जरा ठहरो !
मुझे नयन भर के तुम्हें
देख लेने दो
देखूं ! क्या अाज भी
तुम्हारे भुजबंध
मेरी कमी महसूस करते हैं ?
क्या अाज भी
तुम्हारी तृषा
मे्रे सानिध्य के लिए
अातुर है ?
जरा रुको
मुझे शयन कक्ष की दीवारों से
उन एकांत पलों के
जाले उतार लेने दो
जहां अपनी नींदों को
दूर सुलाकर
मैनें तिमिर को
सखी बनाया था
रुको तो सही
तुम्हारे स्वागत मेंं मुझे
कक्ष की दीवार पे टंगी
तमाम उलझनों
और तनावों को
हटा लेने दो
ताकि मैं तुम्हें
तुम्हारी तलाश का
वातावरण दे सकूं
बस थोड़ी प्रतीक्षा और
पहले मैं अपने बदन की चद्दर को
मोगरे की महक से महका कर
पलंग पर बिछा दूँ
ताकि तुम्हारे बाहुपाश
मेरे सानिध्य से निराश न होंं
और एकाकार के पश्चात
प्रश्नों की व्याकुलता पर
अंतिम विराम लग जाए
जब तृप्ति अतृप्ति का
खेल समाप्त हो जाए
तब कोहरे में ढकी
अलसाई सी भोर में
बिस्तर की सलवटें में
तुम्हें कुछ सिसकियाँ
सुनाई देंगी
छू के देखना अपने गालों को
मेरे खारे आंसूओं का
गीलापन तुम्हें महसूस होगा
सच मेरे प्रेम के
चरम को तुम समझ न पाओगे
आश्वासनों के चंद शब्दों से
तुम मुझे बहला जाओगे
अपने अधरों से
प्रेम प्रदर्शन कर
फिर लौट जाओगे
पुरुष हो इसलिए तुम शायद
नारी मन की
व्यथा न समझ पाओगे
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भाई साहिब प्रस्तुति को मान देने का हार्दिक आभार। आपकी पैनी नज़र की दाद देनी पड़ती है। मैं अभी इंगित टंकण त्रुटि को दुरुस्त किये देता हूँ। आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
आदरणीय समर कबीर जी प्रत्युत्तर के लिए हार्दिक आभार। मैं आपकी बात से इत्तफ़ाक रखता हूँ।
आदरणीय सुशील भाई , प्रेम के संदर्भ मे नारी को समझने समझाने का अच्छा प्रयास हुआ है , कविता के लिये आपको हार्दिक बधाई ।
आश्वानों के चंद शब्दों से --- शायद आप आश्वासनों के चंद शब्द लिखना चाह रहे हैं ।
आदरणीय समर कबीर साहिब आदाब ... प्रस्तुति को अपने शीरीं अल्फ़ाज़ों से इज़्ज़त बख्शने का तहे दिल से शुक्रिया। अगर आपकी ये प्रतिक्रिया न आती तो शायद मैं अपनी ये पोस्ट डिलीट कर देता। बड़े बड़े फनकारों के बीच में इस अदना से सृजनकर्ता की रचना पर कौन गौर करता है ? आपका इस रचना की दहलीज़ तक आना ही मेरे सृजन कर्म को उत्साहित करता है। पुनः आपका हार्दिक आभार।
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