आदरणीय समर कबीर साहब की ज़मीन पर एक ग़ज़ल
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उस मंज़र को खूनी मंज़र लिक्खा है
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जिसने तुझको यार सिकंदर लिक्खा है
तय है उसने ख़ुद को कमतर लिक्खा है
समाचार में वो सुन कर आया होगा
एक दिये को जिसने दिनकर लिक्खा है
वो दर्पण जो शक़्ल छिपाना सीख गये
सोच समझ कर उनको पत्थर लिक्खा है
भाव मरे थे , जिस्म नहीं, तो भी मैने
उस मंज़र को खूनी मंज़र लिक्खा है
हाँ गलती उसने भी की होगी लेकिन
इंच इंच को तुमने गज भर लिक्खा है
क्षत विक्षत देखें हैं मैनें हृदय कई
तब शब्दों को मैंने ख़ंज़र लिक्खा है
ख़ुद को जर्जर लिखने से बचकर उसने
गढ्ढे को भी एक समन्दर लिक्खा है
पर्दे पीछे हाथ मिलाया है जिसने
जब लिख्खा है, थोड़ा बचकर लिक्खा है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीय समर भाई , ऐब ए हश्व की जानकारी के लिये आपका आभार , मै भर्ती के शब्द को तो जानता था , पर मुझे लगा ऐब ए हश्व कोई और दोष होगा , इसी लिये पूछ लिया था । बात और आगे नही बढेगी , निश्चिंत रहिये , दोष जाना हुआ निकला ।
आदरणीय मनन भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय समर भाई , आपकी ग़ज़ल की ज़मीन पर कही गज़ल को आपके पास कर दिया हो हार्दिक खुशी हुई । आपका हृदय से आभार ।
आपने जो सुधार सुझाया है , मुझे मंज़ूर है , मै आवश्यक सुधार कर लूँगा ।
दोष के विषय मे विस्तार से बता दें तो आगे के लिये मेरे साथ साथ मंच के लिये भी अच्छा होगा । सलाह के लिये आपका आभार ।
आदरणीय आशुतोष भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीया राजेश जी , ग़ज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हृदय से अभार ।
आदरणीय गिरिराज भाई सब ..मुझे यूं तो आपकी हर ग़ज़ल पसंद आती है मगर जो सर्वाधिक पसंद आयी उनमे से एक है यह शानदार ग़ज़ल ..आपकी सोच को नमन करते हुए सादर बधाई के साथ
वाह्ह्ह बहुत बढ़िया बहुत बहुत बधाई आद० गिरिराज जी |
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