2122 2122 212
जानवर भी देख कर रोने लगा
न्याय अब काला हिरण होने लगा
आइने की तर्ज़ुमानी यूँ हुई
आइने का अर्थ ही खोने लगा
हंस सोचे अब अलग किसको करूँ
दूध जब पानी नुमा होने लगा
ऐ ख़ुदा ! कैसा दिया तू आसमाँ
था यक़ीं जिस पर, क़हत बोने लगा
बदलियों ! कुछ तो रहम दिल में रखो
चाँद अब तो साँवला होने लगा
आग से बुझती कहाँ है आग , फिर
जब्र से क्यूँ ज़ब्र वो धोने लगा ।
कल बने आतिश फ़िशाँ शायद , यही
सोच मैं चिनगारियाँ बोने लगा
जो खड़ा था सच का परचम थाम के
बातिलों की भीड़ भी ढोने लगा
आपसे बेदारियाँ भी, नींदें भी
आप सोये, तो जहाँ सोने लगा
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
// ऐसी ही बारीकियों के लिये आप गुणी जनो की कमी महसूस होते रहती है । //
सादर आग्रह है, इस तरह की कोई कैटेगरी मन में न पालें, न बनने दें, आदरणीय. हम सभी एक दूसरे से ही सीख रहे हैं. सो, विन्दु-विशेष पर कोई गुणीजन है, तो किसी दूसरे विन्दु पर वही सीखता हुआ अभ्यासी. बाकी और क्या कहूँ ?
आदरणीय सौरभ भाई , गज़ल आपको प्रभावित कर पाई जान कर बेहद खुशी हुई , संतुष्टी हुई ! सराहना के लिये आपका आभार ।
आपकी दोनो सलाह उचित है , मै परिवर्तन कर लूँगा । ऐसी ही बारीकियों के लिये आप गुणी जनो की कमी महसूस होते रहती है । आपका बहुत आभार गज़ल पर उपस्थिति के लिये ।
क्या बात है ! ग़ज़ल ने खूब प्रभावित किया है, आदरणीय गिरिराज भाई जी.. हार्दिक शुभकामनाएँ.
बदलियों नहीं बदलियो कहना उचित होगा. यह सम्बोधन का परिचायक है, न कि बहुवचन का.
दूसरे, हंस सोचे अब अलग किसको करूँ को हंस अब सोचे अलग किसको करूँ कर लीजिये न. भाव स्पष्टता के साथ-साथ वाचन-प्रवाह भी संयत हो जायेगा. ऐसा मुझे लगता है.
शुभ-शुभ
आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल की सराहना कर उत्साहवर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आ० भाई गिरिराज जी बहुत सूंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई स्वीकारें .
आदरणीय विजय शंकर भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय सुरेश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका ह्र्दय्स ए आभारी हूँ ।
आदरणीय श्याम भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
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