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ताक़त वतन की हमसे है [लघु कथा ]

“ऑफिस के लिए देर नहीं हो रही ?यहीं बैठे है आप अभी तक i

“वो बाहर बाबूजी बैठे हैं ना ,फिर पूछेंगे कि अशोक का फ़ौज से कागज़ आया कि नहीं I”

“आप साफ़ कह क्यों नहीं देते कि नहीं भेजना हमें अपने बेटे को फ़ौज में I कागज़ आ गया और हमने फाड़ कर फेंक भी दिया I”

“साफ़  कहने की हिम्मत ही तो  नहीं कर पा रहा हूँ सविता i बहुत प्यार करते हैं अशोक को , फ़ौज में ऑफिसर देखना चाहते हैं उसे”I

“इन्हें क्या मिला फ़ौज से ? टूटी टांग ,बैसाखियाँ और थोड़ी सी पेंशन.. बस i”

“जानता हूँ ,पर बहस करके उन्हें दुखी नहीं करना चाहता हूँI उनके लिए तो फ़ौज शान ,सम्मान और देश प्रेम का दूसरा नाम है i “

“हाँ हाँ पता हैI तभी दिन भर अपना प्रिय गाना‘  ‘ताक़त वतन की हमसे है’   सुनते रहते हैं I पर हमें नहीं भेजना अपने बेटे को जान लगाने के बदले गालियाँ और पत्थर खाने “I  

 

 मौलिक व् अप्रकाशित

  

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 27, 2016 at 5:57pm
देश के नागरिकों, शासन व प्रशासन को समसामयिक ज्वलंत मुद्दों पर अधिक गंभीरता से विचार करने व समाधान की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती बेहतरीन भावपूर्ण रचना के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय प्रदीप कुमार पाण्डेय जी। नकारात्मक अंत होते हुए भी रचना प्रभावोत्पादक व विचारोत्तेजक है।

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Comment by rajesh kumari on July 27, 2016 at 12:15pm

पर हमें नहीं भेजना अपने बेटे को जान लगाने के बदले गालियाँ और पत्थर खाने “I  ---कश्मीर के हालात ने लोगों की सोच बदल के रख दी है फौज को लेके किन्तु जिसका नाम ही फ़ौज हो वो ऐसी आँधियों के क्यूँ डरें? किन्तु माँ बाप का मन तो डरता ही है |बहुत सार्थक लघु कथा है आद० प्रदीप सिंह जी हार्दिक बधाई |

Comment by Sushil Sarna on July 25, 2016 at 6:54pm

आदरणीय प्रदीप जी लघुकथा अपने में एक दर्द को समेटे है. पुत्र को न भेजना खीज और डर के  सम्मिलित भाव का द्योतक है।  इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई। 

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