अपने बंगले के बगीचे की दीवार के पास जमा भीड़ देखकर उसने गाड़ी रोक दी I
" क्या हुआ "? बाहर निकल उसने पूछा I
"कोई भिखारी मर गया "I
" कैसे ?"
" कैसे क्या साहब ,ठण्ड से अकड़ कर I पिछले कुछ दिनों से यहीं पड़ा रहता था दीवार के पास I"
गाड़ी में बैठते उसे लगा ,उसका सारा शरीर ठण्ड से जमा जा रहा है I चार दिन पहले पत्नी ने कहा था कि पुराने गर्म कपडे कम्बल काफी जमा हो गए हैं , कहीं दान करने चलना है I और फिर बात आई गयी हो गयी थी I
" अरे, अब क्या चद्दर डाल रहे हो इसके ऊपर , चलो चलो हटो i ले जाने दो " I शव वाहन वाले काम में लग गए थे I
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आडम्बरों में जकड़ी यह दुनिया अपने ही भविष्य के प्रति कितनी लापरवाह होती है न ? एक सशक्त लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय प्रदीप जी.
शुभकामनाएँ
आदरणीय प्रदीप कुमार पांडे जी,बहुत बहुत बधाई,हम सोचते ही रह जाते हैं।
हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी!बेहतरीन प्रस्तुति!
अरे, अब क्या चद्दर डाल रहे हो इसके ऊपर............
आदरणीय प्रदीप पाण्डेय जी सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई....
सही कहा आपने जो कुछ करना है जीते जी ही करना है समय निकल जाने के बाद सब कुछ व्यर्थ है,फिर तो आत्मग्लानि के सिवाय कुछ नहीं बचता ।
आदरणीय प्रदीप जी, बहुत ही सार्थक लघुकथा लिखी है आपने. रचना का सन्देश बहुत तीव्रता से प्रभवित करता है इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. सादर
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