२१२ २१२ २१२ २
आदमी आदमी का सहारा
एक साथी बिना क्या गुजारा
गीत को साज भी है जरूरी
नाव भी ढूँढती है किनारा
धूप है तो यहाँ छाँव भी है
राह के बीच में ठाँव भी है
सोचता क्या चला आ बटेऊ
खेत है पास में गाँव भी है
शान्ति के मार्ग जाऊँ कहाँ से
ज्ञान का दीप लाऊँ कहाँ से
लोभ ने मोह ने राह रोकी
मोक्ष मैं आज पाऊँ कहाँ से
देश में बीज क्या बो रहे हैं
क्यूँ बुरे हादसे हो रहे हैं
एक है काटता दूसरे को
पेड़ ये देख के रो रहे हैं
हाथ में फूल भी तीर भी हो
दूध में छाछ भी खीर भी हो
एक दूजे बिना हैं अधूरे
आँख में लाज भी नीर भी हो
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जी आद० गोपाल भाई जी,ग़ज़ल में जिन्हें हम रुक्न कहते हैं छंदों में वर्ण समूह होते हैं यहाँ इस छंद में ख़ास बात ये है कि इसमें २ को ११ नहीं कर सकते अतः दीर्घ की ही बंदिश है आपको छंद पसंद आया बहुत- बहुत आभार आपका|
आदरणीय समर भाई जी ,अपनी प्रतिक्रिया से रचना का मान बढ़ाने के लिए तहे दिल से शुक्रिया सादर |
आद० श्याम नारायण वर्मा जी ,आपको छंद पसंद आये दिल से बहुत बहुत आभार आपका |
आद० सुशील सरना जी ,आपको छंद पसंद आये दिल से बहुत बहुत आभार आपका |
बहुत सुन्दर भावों से सजी रचना बहुत 2 बधाई
सादर
हाथ में फूल भी तीर भी हो
दूध में छाछ भी खीर भी हो
एक दूजे बिना हैं अधूरे
आँख में लाज भी नीर भी हो
वाह आदरणीया राजेश कुमारी जी भावों की बहुत सुंदर प्रस्तुति हुई है। इस मधुर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
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