दिल के निहाँ ख़ाने में ....
लगता है शायद
उसके घर की कोई खिड़की
खुली रह गयी
आज बादे सबा अपने साथ
एक नमी का अहसास लेकर आयी है
इसमें शब् का मिलन और
सहर की जुदाई है
इक तड़प है, इक तन्हाई है
ऐ खुदा
तूने मुहब्बत भी क्या शै बनाई है
मिलते हैं तो
जहां की खबर नहीं रहती
और होते हैं ज़ुदा
तो खुद की खबर नहीं रहती
छुपाते हैं सबसे
पर कुछ छुप नहीं पाता
लाख कोशिशों के बावज़ूद
आँख में एक कतरा रुक नहीं पाता
हिज्र की रातों में सितारों से बतियाते हैं
खामोश लम्हों से
बारहा उनके अक्स चुराते हैं
अक्स
जिनमें उसके आरिज़ों पर
हया की अरुणाई है
अक्स
जिसमें उसके लबों पर
प्यास थरथराई है
अक्स
जिसमें वो बे-हिज़ाब आई है
आज उसकी याद ने
मेरे दिल के निहाँ ख़ाने में
ली एक अंगड़ाई है
पेशानी पे मुहब्बत की यारो
इक लफ्ज़ लिखा तन्हाई है
न उसको ये रास आई है
न मुझको ये रास आई है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया प्रतिभा पांडेय जी प्रस्तुति को अपनी आत्मीय प्रशंसा से मान देने का हार्दिक आभार।
सुन्दर शब्द चयन के साथ गहरे भाव सम्प्रेषण .. हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको इस खूबसूरत रचना के लिए आदरणीय सुशील सरना जी
आदरणीय समर कबीर जी प्रस्तुति में निहित भावों को अपनी उत्साहवर्धक टिप्पणी से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
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