इक माँ होती है ....
कितना ऊंचा
घोंसला बनाती है
नयी ज़िन्दगी का
ज़मीं से दूर
घर बनाती है
अपने पंखों से
अपने बच्चों को
हर मौसम के
कहर से बचाती है
न जाने कहाँ कहाँ से लाकर
अपने बच्चों को
दाना खिलाती है
पंख आते हैं
तो उड़ना सिखाती है
नए पंखों को
आसमां अच्छा लगता है
ज़मी से रिश्ता बस
सोने का लगता है
देर होते ही मां
घोंसले पे आती है
नहीं दिखते बच्चे
तो बैचैन हो जाती है
सांझ होते ही
घबराहट बढ़ जाती है
अपनी उड़ान का
घमंड लिए
बच्चे स्वतन्त्र हो जाते हैं
अपने ही घोंसले को
भूल जाते हैं
चिड़िया चोंच में दान लिए
वहीं बैठी रहती है
बच्चों को शायद
अब जरूरत न हो मगर
पंख अब भी
खाली घोंसले पर
फैले रहते हैं
बच्चे क्या जानें
ममता क्या होती है
वो पास रहें या दूर
वो सदा उनके पास होती है
पत्थर से हालातों को सहती
जो हर पल
मोम सी पिघलती है
वो इस जहां में
सिर्फ
इक माँ होती है
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
अपनी सहर
Comment
अपनी उड़ान का
घमंड लिए
बच्चे स्वतन्त्र हो जाते हैं
अपने ही घोंसले को
भूल जाते हैं ...वाह वाह , इतनी सुन्दर रचना बार बार पढ़कर भी मन नहीं भरता , हार्दिक बधाई आपको आदरणीय सुशील जी
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